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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३०२ बाए भट्ट की अात्म-कथा गद्दा रखीं । महामाया प्रतिमा की भाँति निश्चल खड़ी रहीं । गुरु ने जब अाँखें हटाई तो वे तेज़ी से एक ओर निकल गई। मैं अब भी जब उस दृश्य को स्मरण करता हूँ तो मेरे रोएं खड़े हो जाते हैं । पर अब तक यह नहीं समझ सका कि अवधूत पाद के वाक्यों का अर्थ क्या है ? क्या धरित्री रक्तस्नान से बच जायगी या अौर भी डूब जायगी । और क्या महामाया सचमुच त्रिपुर भैरवी बन जायँगी १ क्या सचमुच महाकाल का कुण्ठनृत्त रुक जायगा १ कहाँ हो त्रिपुर सुदरी, इस घृणा और जुगुप्सा के जगत् की सुदर क्यों नहीं बना देतीं, क्या तुम विकराल ताण्डव से धरित्री पर महानाश का खेल ही खेलती रहोगी १ कहाँ है रुद्राणी, वह तुम्हारा दक्षिण मुख, वह सुकुमार भाव, वह शामक हास्य, वह मनोरम भंगिमा जो कातर जगत् को शान्ति दे सके, जो व्याकुल विश्व को सान्त्वना दे सके, जो धरती को रक्तस्नान से बचा सके । मैं इन्हीं विचारों में उलझा हुआ था कि सामने भट्टिनी आकर खड़ी हो गई। उनकी बड़ी-बड़ी अखिों में असू भरे हुए थे, कंठ वाष्प-गद्गद था और मुख-मएडल लाल आभा से प्रभासित था । तो क्या यही त्रिपुर सुदरी का दक्षिण मुख है ! दक्षिण मुख !-जिसमें करुणा की धारा प्रवाहित हो रही हैं, अनुराग की आभा उल्लसित हो रही है, स्नेह की स्निग्धता चमक रही है ! अहा, भुवन मोहिनी का यही क्या वह रूप है जिसकी पूजा करने के लिये अवधूत गुरु ने मुझे इतना सिखाया था । यह कुरंग के समान भीत चपल नेत्र, शरच्चंद्र के समान अह्लाद-कारक मुख, विवफलों के समान ताम्र अधरोष्ठ, चंदन-गंध से अमोद-मुदिर अंग, करुणा के अश्रु से सिक्त मनोहर दृष्टि जो अन्तःकरण को मोहित कर डालती है—यही तो भुवन मोहिनी का रूप है। गुरु ने ही मुझे वह ध्यान मंत्र लिख दिया था- कुरंग नेत्रां शदविन्दु वक्त्रां विंग्वाधारां चन्दनगंध लिप्ताम् । दृशा गलकारुणि कायान्तः सम्मोहयन्ती त्रिजगन्मनोशाम् ।