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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्मकथा ३०५ निपुणिका के मुख पर स्वाभाविक मधुरिमा फिर खेलने लगी। उसने मन्दस्मित के साथ कहा—'भूल तुम करो, रास्ता मैं बताऊँ ?मैंने रस लेते हुए कहा-‘कोई नई बात तो नहीं है निउनिया ।' निपुर्णिका की आँखों में एक उल्लास का भाव दिखाई दिया, उसने हँसते हुए कहा—'जटिल बट्ट की याद है न १? और अचल से मुंह ढक कर देर तक रुद्ध हँसी से लोट-पोट होती रही । उसके आँचल पर वे मनोहर छरहरी अंगुलियाँ देर तक काँपती रहीं, जिनकी उपयोगिता देखकर ही मैंने निपुणिका को मंडली में लिया था। | क्षण भर में मुझे विदिशा के जटिल वडु की याद आ गई। वह नित्य मुझे तंग किया करता कि मैं उसे अपनी नाटक-मण्डली में ले ले । उसका ललाट प्रशस्त और मोटा था, अखे दाड़िम-फल-सी फटो हुई और लाल-लाल थीं, कंठ-स्वर कर्कश और तीव्र था, मुझे कोई भी चरित्र ऐसा नहीं मिल रहा था, जिसका अभिनय उससे कराऊँ । वह इटा ही रहा। मंडली के सभी लोग उससे ऊब गए थे, केवल मेरे संकोच के कारण ही वे उसको सह ते जा रहे थे । एक निपुणिका ही थी, जो उसे चिढ़ाती नहीं थी । केवल मेरी ओर देखकर ही वह अपना लोभ संवरण कर लेती । जटिले इस उदासीनता को अनुराग समझता । उसकी दाढ़ी सम्मानी शलाका के गुच्छ-सी लगती थी, मुख पर मंछ इस प्रकार अस्त-व्यस्त होकर उगी थीं, मानो किसी चट्टान पर शर गुल्म निकल आए हों । वह सदा रंग-मंच पर उतरने के लिये कातर प्रार्थना जताया करता । एक दिन मेरी मण्डली अभिज्ञान शाकुन्तल का अभिनय करने वाली थी। उस दिन नागरी के सभी प्रतिष्ठितः नगरवासी अनेवाले थे। स्वयं युवराज भट्टारक के भी पधारने की बात थी। उस दिने मारीच की भूमिका में उतरनेवाला देवरात एकाएक बीमार पड़ गया | मैंने सोचा कि जटिल वटु को इस भूमिका में उतार दें । विशेष कुछ करना नहीं था, उसे दिन भर अखि २०