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बाण भट्ट की आत्म-कथा

यण भट्ट की अाम-कथा । भाव के वाक्य कहती और मनोहर भंगिमा से ताल देती। यह विचित्र प्रहसन देर तक चलता रहा । नाना कौशल से निपुरिएका ने जटिल बटु को अपने पैरों पर गिराया, कटि पकड़ कर नचाया, सिर के केशों को मंच पर रगड़वाया और इस प्रकार बिगड़े हुए दृश्य को मनोरम प्रहसन का रूप देकर जटिल को खींचती हुई रंगभूमि से। निकल गई । शत-शत नागरिक कंठ के उच्च अट्टहास्य और दीर्घ दीघयित साधुवाद से भमि हिलने लगी । युवराज भट्टारक सहदय थे। उन्हें सारी परिस्थिति समझ में आ गई थी। उन्होंने अपने बहुमूल्य उत्तरीय के प्रसाद से निपुणिका को सम्मानित किया। बाद में इस अट्टहास्य की पृष्ठभूमि में मारीचश्नम का शान्त सुखद दृश्य और भी चमक उठा। उस दिन निपुणिका ने मेरी लाज बचाई थी। उसी मनोरम दृश्य को याद करके अाज निपुणिका की हँसी बाँध तोड़ देना चाहती थी । मुझसे भी हँसी रुका नहीं। हँसी से लोट-पोट होता हुआ बोला-'हाँ निउनिया, भूल करता हूँ मैं और रास्ता निकालती है। तु !' देर तक वह अपने ही विचारों के तरंगावर्त में डोलती रही फिर एकाएक गंभीर होकर बोली---‘हँसी नहीं कर रही हूँ भट्ट, मैं सचमुच रास्ता निकालने आई हूँ । सुनो, मेरी बात मानी ।। | निपुणिका यद्यपि गंभीर हो गई थी पर अर्थ भी उसकी कपोल- पालि विकच पुण्डरीक की शोभा धारण किए हुए थी, अब भी उसके चंचल नयनों में सरसत छलक रही थी, अब भी उसका अचल मुख पर छाया हुआ था, अब भी उसके उत्तरोट थोड़ा थोड़ा काँप रहे। थे। उसकी मधुर मूर्ति बड़ी मोहके जान पड़ती थी, मानों शरच्चंद्रिका का जमा हुश्रा रूप हो, दुग्धे समुद्र की सिमटी हुई अाभा हो, सुधाभरिड का संयचित वैशद्य हो । उसने अाँखे झुका ले और इस प्रकार धीरे- धीरे बोलने लगी मानों अपने प्रत्येक शब्द को तौल-तौल कर देख लेती जा रही हो । मेरी ओर उसने देर तक नहीं देखा । बोली-