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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२० आण भट्ट की आत्मकथा दिया ।' निपुणिका संस्कृत नहीं जानती थी, उसने क्या जाने क्या समझा । उसके अधरों पर ज़रा-सी स्मित-रेखा प्रकट हो अाई और कुछ देर के लिए उसकी आँखें झुक गई। उसी समय उसके शिथिल कवरी बन्ध से एक मल्लिका-पुष्प गिर गया और इस अपराध का दण्ड उसे तुरत मिल गया। निपुणिको अपने पादांगुष्ठों से उसे इधर-उधर गड़ने लगी । कालिदास की मालविका का जो रूप निपुगि का में अभी तक नहीं आ पाया था, वह भी आ गया और मैं खिलखिलाकर हँस पड़ा। मेरा हमनः देवकर निपुणिका ने सिर उठाया। अब की बार उसकी अाँखें गीली थीं । वह फीर-धीरे वहाँ से हट गई । मुझे लगा कि मेरा हँसना वह बर्दाश्त नहीं कर सकी। मैं और कामों में उलझ गया। नाटक शुरू हुआ और ५ घटी तक समारोह के साथ होता रहा । मैं उस दिन बहुत प्रसन्न था । परमभट्टारक के अानन्द-गद्गद् मुख से स्पष्ट ही प्रकट हो रहा था कि मैं कल प्रचुर पुरस्कार पाऊँगा । उन्होंने दूसरे दिन राज-सभा में दर्शन देने का प्रतिवचन दिया । सामाजिकों के भूयो भूयः साधुवाद के बीच अभिनय समाप्त हुआ । उस दिन का कार्य समाप्त करके मैं आवास की ओर लौटा । निपु- णिका को एक अच्छा पुरस्कार देने की बात सोच रहा था कि किसी ने आकर समाचार दिया कि निपुगि का नहीं है। मैं जैसे अनभ्र गर्जन सुन कर चौंक उठा । रात-भर नियुणिका की खोज करता रहा; पर उसे न पा सका । दूसरे दिन, तीसरे दिन, चौथे दिन-नियुणिका • निम्नलिखित श्लोक स तात्पर्य जान पड़ता है:- वासं संधिस्तिमित वलयं न्यस्य हस्ते नितम्बे कृत्वा श्यामा-बिटपि-सदृशं सस्तमुक्त द्वितीय । पादांगुष्ठालुलित-कुसुमे कुष्टिमे पातिताक्ष नृत्यादस्याः स्थितमतितरां कान्तमृहायताक्षम् ।