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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की श्रीम-कथा सुन रहा हूँ। मेरे मर्मस्थल को बेधकर एक प्रश्न अन्तस्तल के असीम गांभीर्य में गूंजता रहा—क्या छोटा सत्य बड़े सत्य का विरोधी होता है ? ऐसा हीं तो देख रहा हूँ । सामान्य मनुष्य जिस कार्य के लिये लांच्छित होता है उसी कार्य के लिये बड़े लोग सम्मानित होते हैं ! कैसा घर परिवर्तन हुआ है निपुरिमका में ! वह अाज परिताप की ज्वलन्त उल्का बनी हुई है । क्या करेगी यह ? अकेला चना क्या भाड़ फोड़ सकता है ? समाज की अग्नि-शिखा तो नित्य ही व्यक्तियों की ग्राहुति ले रही हैं, पर रास्ता क्या है। नारी से बढ़कर अनमोल रत्न और क्या हो सकता है, पर उससे अधिक दुर्दशा किसकी हो रही है ? मुझसे निपुगिका क्या अाशा रखती है १ अवधूतपाद की साधना इस- लिये अधूरी हैं कि उन्हें विशुद्ध नारी का सहयोग नहीं मिला और निपुणिका की बलिदानाकांक्षा इसलिये अपूर्ण है कि उसे पुरुष का करा- वलंब नहीं मिला ! सत्य क्या है ? मैंने स्पष्ट ही देखा कि निपुरिएका की अाँखों से अग्नि-स्फुल्लिग झड़ने लगे हैं । क्या यह फिर मूर्छित होने जा रही है ? मैं क्या उत्तर दें, यद् सोच ही रहा था कि निपुग्किा पर-कटे पक्षी की भाँति मेरे चरणों पर लोट गई । मैं हाहाकार कर उठा। आवाज़ सुनकर भट्टिनी दौड़ ग्राई । पूजा-वेदी से वह सीधे उठकर आई थीं । | निपुणिका अपनी संज्ञाहीन अवस्था में भी कसकर मेरा पैर पकड़े रही । बड़ा कठोर बंधन था वह । मैं भट्टिनी को देखकर साध्वसवश उठने लगा पर उस बंधन ने मेरी चेष्टा में बाधा दी । भट्टिनी ने करुण स्वर में कहा-‘मत छुट्टाग्र भट्ट, उसे शान्ति मिल रही होगी १' मैं अद्धत्थित अवस्था में ही रुक गया। भट्टिनी नीचे बैठ गई और उसके भीगे केशों में अपनी अंगुलियाँ डाल दीं । बड़े प्रयास से मैं भी नीचे बैठा । निउनिया के हाथ मेरे पैरों से उसी प्रकार कसे रहे। मैंने संक्षेप में भट्टिनी को नियुणिका के उत्तेजित वाक्यों का सारमर्म बताया। वे