पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३१४
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भइ की आत्मकथा उन्हें कुमार कृष्णवर्धन से मालूम हुआ। कुमार को भट्टिनी का परि- चथ मालूम था । क्यों और कैसे उन्हें मालूम हुआ, यह मैं अभी नहीं बता सकता है। लोरिक देव की केचित भृकुटियों में सहज भाव आ गया, ललाट देश को धनुषायित वलियाँ सरल हो आई, आकृष्ट गएड-कुञ्चिकाएँ तिरोहित हो गई, उनकी अाँखों में सहज विश्वास का भाव लौट आया। थोड़ा रुक करके धीर-संयत भाषा में बोले-'देखो भट्ट, मेरी शिरा में गुप्तों के अन्न से बना हुआ रक्त है, मैं अट्ठारह वर्ष की अवस्था से गुप्त सेना का सैनिक रहा हूँ। मैंने सिंधु और कुभा के उस पार तक समुद्रगुप्त के गरुड़ध्वज को फहराया है। मेरी अवस्था इस समय साठ से ऊपर हो गई हैं। तुम क्या अशा रखते हो कि इस प्रौढ अवस्था में अपने अन्नदाताओं को दुर्बल देखकर कल के बनियों को राजाधि- राज मान लें ? यह असंभव है । अगर मुझे अधीनता माननी है तो वह गुप्तों की ही मान्य होगी । कान्यकुब्ज के राजा को मैं चरणाद्रि दुर के पूर्व किसी प्रकार नहीं आने दूगा ।' उनकी अखिों में रोष का भाव प्रकट हुशा; किन्तु उन्होंने फिर अपने को सँभालकर कहना शुरू किया----‘बड़ा विकट संवाद गिरिवर्म के उस पार से आया है। भट्ट, कान्यकुब्ज का नपुंसक शासन उस संकट को दूर नहीं कर सकता। देवपुत्र तुवरमिलिन्द से मित्रता स्थापित करने मात्र से यह धर्माचार- हीन शासन बलवान् नहीं हो जायगा । हाय, इस समय गुप्त कुल में कोई शक्तिशाली बच्चा भी नहीं बच रहा । स्कन्दगुप्त के साथ ही गुप्त का प्रतापानल शान्त हो गया है । योग्य से ही योग्य के मिलने से शक्ति उत्पन्न हो सकती हैं। भट्ट, तुम स्वप्न में भी यह विश्वास मन में न जमने दो कि अयोग्य राजा से मित्रता होने पर देवपुत्र तुवरमिलिन्द शक्तिशाली हो जायँगे । देखो, मैं कूटनीति नहीं जानता, तुम लोगों ने नाना शास्त्रों के अभ्यास से जिस प्रकार अपनी बुद्धि शारित की है।