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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा वैसा करने का अवसर मुझे कभी मिला ही नहीं, मैंने घोड़े की पीठ पर ही विश्राम पाया है और जुझाऊ वाजों की गड़गड़ाहट में रात्रि-यापन किया है, मुझे नीति -पटु होने का गर्व एकदम नहीं है। मैं सहज बात को सहज ढङ्ग से हैं। समझ पाता हूँ । सत्य और असत्य का मेल नहीं हो सकता । आर्यावर्त के समाज में अनेक स्तर हो गये हैं । यह भरा वान् का बनाया विधान नहीं है। यह अमत्य है । गिरिवर्म के उस पार से जो म्लेच्छ वाहिनीं ग्रा रही है उसने इस मिथ्या को कभी प्रश्रय नहीं दिया है। मैं अपनी आँखों देखी बात ही तुमसे कह रहा हैं । प्रबल प्रताशी गुप्त तरपतियों ने इस मिथ्या समाज-भेद के साथ उदात्त भावनाओं का समन्वय करना चाहा था। यह गलती थी । गोविन्द गुप्त ने इस रहस्य को समझा था, तुवरभि लिन्द ने भी समझा है, पर गुप्त सम्राट्गग इसे नहीं समझ सके। वे उच्छन्न हो गए । यही होना था । अार्य गोविन्द गुप्त के परामर्श से ही मैंने अपनी इस आभीर वाहिनी में स्तर भेद नहीं होने दिया। मेरे दस सहसे मल्ल भीतर से बाहर तक एक हैं। जब कभी गुप्त नरपतियों को म्लेच्छ-सेना से भिड़ना पड़ा है तभी यह अभीर सेना उनके काम अाई है। मैं दीर्घ अनुभव के बाद कह रहा हूँ भट्ट, देवपुत्र की सेना के साथ यदि किसी की मित्रता हो सकती है तो गुप्तों की इस अभिीर सेना की ही हो सकती है । कान्यकुब्ज की सेना देवपुत्र के लिये बोझ ही सिद्ध होगी । तुम मेरी बात समझ रहे हो न भट्ट १ मैंने विनीत भाव से सिर हिलाया। लोरिकदेव ने फिर कहा-

  • समूचा आर्यावर्त रक्तकदम से पिच्छिल होने जा रहा है, कान्यकुब्ज की

कुटिल नीति इस समय इस देवभूमि को महानाश से नहीं बचा सकती। मैं किसी अभिमानवश कुछ नहीं कह रहा हूँ, समूचे देश के कल्याण के लिये तुम्हें सावधान कर देता हूँ। भट्टिनी को कान्यकुब्ज-नरेश के हाथों कभी मत पड़ने देना ।' इतना कहकर उन्होंने मेरी ओर प्रश्न भरी दृष्टि