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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा से देखा। मैंने नम्रतापूर्वक किन्तु दृढ़ता से उत्तर दिया--'आभीरराज, आपके स्पष्ट और उदार परामर्श के लिये अत्यन्त कृतज्ञ हूँ । मैंने सारा जीवन उच्छृखल अनह्वान् को भाँति मस्ती से ही बिताया है। मुझे न कूटनीति से ही कोई परिचय है न युद्ध-विग्रह से ही । मैं प्रमाद और परिस्थितिवश राजनीतिक दव-पेंचों में फंस गया हूँ । परन्तु इतना आप विश्वास मानें कि मेरे हाथों से अब भट्टिनी को काल भी नहीं खींच सकता । भट्टिनी जहाँ भी रहेंगी रानी होकर रहेगी । अपि अगर अपराध मन में न लावे तो अापके अन्तःपुर में भी मैं उन्हें स्वतन्त्र रानी ही मानता हूँ। लीरिकदेव हँसे । उस हँसी का स्पष्ट तात्पर्य था कि तुम बहुत भोले हो । पर कुछ बोले नहीं । थोड़ी देर बाद मौन रह कर उन्होंने कहा- मैंने अपने दस सहस्र मल्ल भट्टिनी की सेवा के लिये दे दिये हैं। वे उन्हें चाहे जिस प्रकार सेवा में नियुक्त कर सकती हैं। मैं चाहता हूँ कि वे ही पुरुषपुर तक देवपुत्रनंदिनी को साथ लेकर जांय । इस प्रस्ताव में मेरा कोई निजी स्वार्थ नहीं है। अगर है तो सिर्फ इतना ही कि मैं गुप्तों के शत्रुओं के कंधे पर इस पवित्र भूमि की रक्षा का भार नहीं देना चाहता । मैं उनके और किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता । गुप्त सम्राट् उनसे. वचने हार चुके हैं । सोचकर देखो भइ, सारे देश का कल्याण इसी में है या नहीं । | मैं सचमुच सोच में पड़ गया । कुमार कृष्ण को मैं क्या उत्तर दें गा ? क्या यह संभव है कि कान्यकुब्ज की छाती चीरती हुई इतनी बड़ी सेना निकल जाय और संघर्ष न हो ? और संघर्ष से क्या महानाश का मार्ग और भी प्रशस्त नहीं हो जाता १ भट्टिनी का भविष्य भी क्या अनिश्चत नहीं हो जाता है लोरिक देव सरल है पर महाराजाधिराज के विषय में उन्हें बहुत भ्रान्त बातें बताई गई हैं। फिर साठ वर्षों का वद्ध वैर आसानी से शिथिल भी तो नहीं हो सकता है क्या उपाय है ? मैंने विनीत भाव से उत्तर दिया कि मुझे भट्टिनी की आज्ञा लेने