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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाए भट्ट की अत्म-कथा । ३१७ का अवसर दिया जाय । लोरिक देव ने प्रसन्नतापूर्वक अनुमति दे दी। लोरिक देव ने विश्राम-कक्ष से जब बाहर निकला तो मेरा मस्तिष्क नाना चिन्ताअों से व्याकुल हो रहा था। मुझे स्पष्ट ही दिख रहा था कि आर्यावर्त की पवित्र देवभूमि नर-कंकालों से भरकर श्मशान होने जा रही है। इस महा नाश को रोकने का जो अस्त्र विधाता ने संयोग और सौभाग्यवश मेरे हाथ में दे दिया है उसकी उपयोग-विधि से मैं एकदम अनभिज्ञ सिद्ध हो रहा हूँ। मुझे एक-एक करके बीती हुई घटनाएँ याद आने लगीं, निपुणिका का अचानक मिल जाना, छोटे महाराज के अन्तःपुर में स्त्री वेश में भट्टिनी का उद्धार, भदन्त और अवधूत का संयोगवश मिलन श्रौर कुमार कृष्णवर्धन से परिचय । यह क्या सब पूर्व चिन्तित विधि-विधान है १ इतने संयोग कैसे एकत्र हो गए १ कितनी विचित्र बात है यह १ ऐसा जान पड़ता है कि यह किसी निपुण कवि की निबद्ध श्राख्यायिका हो ? अवधूतपाद ने पहले ही दिन मेरे समूचे अस्तित्व को झकझोर कर कहा था कि भट्टिनी ही मेरी देवता है । आज घटना-चक्र ने भेरी सिद्धि को ही साधन बना दिया है । मुझे कहीं से कोई प्रकाश-रेखा नहीं दिखाई दे रही, पर सिद्धि को साधन समझना कच्चे चित्त की कच्ची कल्पना है। इसे रूप ग्रहण करने देना प्रमाद होगा । इससे चाहे सारे संसार का कल्याण हो जाय मेरा सत्या- नाश निश्चित है। एक ओर अर्यावर्त का कल्याण है दूसरी ओर मेरा सत्यानाश । कौन-सी चुनँ १ मुझे अवधूत अघोर भैरव के वाक्य याद आए, उन्होंने विरतिवज्र से कहा था-'देखी विरति, सत्य अवि- भाज्य है । तुम्हारे बौद्ध दार्शनिकों ने संवृति-सत्य (व्यवहारिक सत्य) और परमार्थ-सत्य कहकर उसे विभक्त करने का दम्भ फैलाया है । मानों ये दोनों परस्पर विरुद्ध हो । जो मेरा सत्य है वह यदि वस्तुतः सत्य है तो वह सारे जगत् का सत्य है, व्यवहार का सत्य है, परमार्थ का सत्य है–त्रिकाल का सत्य है | अवधूतपाद के इस कथन का