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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३१८ बाण भट्ट की अस्मि-कथा क्या तात्पर्य हो सकता है ? एक बात मुझे हस्तामलक की भाँति स्पष्ट दिखाई दे रही है। मैं अपने सत्य को ही अाचरण में उतार सकता हैं, सारे जगत् के कल्याण को मैं चाहूँ भी तो अपने भीतर उतार नहीं सकता । भट्टिनी को मैं राजनीति का खिलौना नहीं बनने दू गा । भट्टिनी मेरी राज राजेश्वरी हैं, उनके सामने महाराजाधिराज श्रीहर्ष ही क्या और अभीरराज लोरिकदेव ही क्या । मेरा कर्तव्ये बस एक है । राजराजेश्वरी की अकुठ सेवा । प्राण रहते मैं किसी को इम कर्तव्य में बाधक नहीं होने देंगा । अाज अाभीरराज ने जो कहा है उससे मेरे कर्तव्य का क्या कहीं विरोध है ? ऐसा तो नहीं दिखता। और कुमार कृष्णवर्धन ने जो कुछ कहा था उससे क्या मेरे कर्तव्य से कोई विरोध है ? ऐसा भी तो नहीं दिखता । कुमार ने कहा था, चाहे जैसे हो भट्टिनी को यहाँ ले अायो ।' मैं भट्टनी को राजराजेश्वरी बना कर ले चलू गा, एक सहस्र आभीर-मल्ल उनकी सेवा में नियुक्त होंगे, जो उनके इङ्गित पर अपने प्राणों को आहुति दे देंगे—इसमें विरोध कहाँ है ? भट्टनी की सेवा कान्यकुब्ज की छाती चरती हुई निकल जाएगी, इसमें वाधा देने वाला था तो मुझे मार डालेगा, या मैं उसे मार डालु गा ? मेरे मर जाने पर भट्टिनी का क्या होगा ? धिक् भरड वाश ! फिर तू अपने को भट्टिनी का रक्षक समझने लगा । भट्टिनी तेरी सिद्ध हैं, तुझे उनकी सेवा के लिये प्राण उत्सर्ग करेने का ही अधिकार है। मैं इसी प्रकार शत-शत चिन्तायों में उलझा चला जा रहा था कि पीछे से गंभीर कंठ से किसी ने संबोधन किया-‘आर्य, हमें भूल ही गए हैं। पीछे मूड़ कर देखता हूँ तो मौखरि-वीर विग्रहवर्मा है। श्रद्धाति- रेकवश उसने झुककर भूमि में मस्तक टिका कर प्रणाम किया । मैंने आशीर्वाद देकर उसका और उसके सैनिकों का कुशल-संवाद पूछा। उसने यथोचित उत्तर देने के बाद कहा--'आर्य, आभीर सेना के