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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२१ बाण भई की अस्मि-कथा फिर नहीं मिली । मैं राजसभा में नहीं जा सका । रह-रहकर निपुणिका की गीली अखें मेरा हृदय कुरेदने लगीं। मैं अपनी उम अशुभ हँसी से अव । न-कुसुम की भाँति भये पाने लगा । नाटक-मण्डली को मैंने पाँचवे दिने तोड़ दिया और अपने लिखे हुए प्रकरण को शिप्रा की चटुल तरंगों को भेंट कर दिया। तब से आज छः वर्ष बीत गए हैं, मैंने वह पेशा ही छोड़ दिया है । आज जब फिर एक पुरस्कार की अशा से राज-सभा की अोर चला हूँ, तो सामने वही निपुण का। उस दिन जिसके अदर्शन ने विप्न उपस्थित किया था, उसका दर्शन भी क्या अाज विघ्न उपस्थित करेगा ? अदृष्ट को कौन रोक सकता है ! मैं बड़ी देर तक कुछ बोल न सका। केवल निर्निमेष नयनों से निपुण का क] अर देखता रहा । वह पान लगा रही थी ; पर यह अनाड़ी आदि में भी समझ सकता था कि उसके चित्त में कोई भयंकर उथल-पुथल चल रही थी । बहुत दिनों के बाद पान पर फिरत हुई निपुणका की शिथिल अँगुलियों को देखकर मुझे एक अभूत- पूर्व प्रह्लाद हो रहा था । निपुरिएका के अधरों पर मुस्कान थी और अखिों में पानी । वह भी चुप थी । पाने का एक बड़ा एक घटी म लग सके। तब उसने मेरी ओर ताका । असू रुक नहीं सके । वे झरते रहे--- झरते रहे--झरते रहे । मैं निर्वाक - निश्चल देखता रहा । अश्रु फिर भी करते रहे । अन्त में मैं ही चिल्ला उठा--- ‘नि उनिया, रा मतं ।' मेरी वाणी ज़रूर कातर रही होगी । निउनिया अब सिसकने लगी । मैं धड़फड़ा कर उठा कि उसके असू पोछ । फिर तो वह सावधान हो गई। ज़रा भत्र्सना सी करती हुई बोली- ‘छी-छी, क्या कर रहे हो ? बाज़ार में बैठे हैं, नहीं देखते ! मैंने दृढ़ता के साथ कहा-'मै बिल्कुल नहीं परवा करता कि हम कहाँ बैठे हैं। मैं तुझे इस तरह रोने नहीं दें गा । अभागी, तू भाग क्यों अाई १०