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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३२१ बाणु भट्ट की आत्म-कथा ही सन्तोष करना उचित समझा जितना वह अनायास कह जाती। तब से उसके साथ मेरा वैसा ही व्यवहार है । जब प्रसन्न होकर कुछ कहती है तो सुन लेता हूँ । अधिक पूछने का प्रयोजन भी नहीं होता, सार्थकता भी नहीं रहती। बड़े करुणाजनक संयोगों के बीच से मैंने यह अनुभव किया है कि स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते । सहानुभूति के द्वारा ही उस मर्मवेदना का किञ्चित् अाभास पाया जा सकता है । निपुणिका ने कल कहा था कि मेरी ही शपथ करके तुम सत्य-सत्य कहो आय, मेरा कौन-सा ऐसा पाप चरित्र है जिसके कारण मैं आजीवन दुःख की विदा- रुण भट्टी में जलती रहीं; क्या स्त्री होना ही मेरे सारे अनर्थों की जड़ नहीं है ? इन शब्दों में कितना ममन्तक दुःख है वह मैं ही जानता हैं। निपुणिका में इतने गुण हैं कि वह समाज और परिवार की पूजा का पात्र हो सकती थी, पर हुई नहीं। इतने दिनों से साथ हूँ, उसके चरित्र में मैंने कहीं कोई कलुष नहीं देखा । वह हँसमुग्व है, कृतज्ञ है, मोहिनी है, लीलावती ई-वे क्या दोष हैं १ मेरा चित्त कहता है कि दोष किसी और वस्तु में है, जो इन सारे सद्गुणों को दुग्ण कह कर व्याख्या करा देती है। वह वस्तु क्या है ? निश्चय ही कोई बड़ा असत्य समाज में सत्य के नाम पर घर बना बैठा है । निपुणिका में सेवा-भाव इतना अधिक है कि मुझे आश्चर्य होता है। उसने मेरी सेवा इतने प्रकार से और इतनी मात्रा में की है कि मैं उसका प्रतिदान जन्म-जन्मान्तर मैं भी नहीं कर सकेगा। निपुणिका ने स्वयं मुझे बताया था कि मेरे प्रति उसका मोह था, जो मेरे एक आविचारित हास से पुरी तरह आहत हुआ था । निपुणिका जैसी सेवा-परायण, चारुस्मिता, लीलावती ललना के प्रति जिस पुरुष की श्रद्धा और प्रीति उच्छवासित न हो उठे व जड़ पाषाण-पिण्ड से अधिक मूल्य नहीं रखता । निपुणिका ने मुझे जिस दिन जड़ कहा था उस दिन उसका