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बाण भट्ट की आत्म-कथा

मणि भट्ट की अात्म-कथा ३२३ मोह क्या सचमुच कट चुका था ? उसने पहले कभी भी अपना राग मेरी ओर प्रकट नहीं किया था परन्तु उसकी प्रत्येक भाव-भंगी में, प्रत्येक सेवा में एक मौन उल्लास बर बर बताया करता कि इस क्रिया- कलाप की अत्यन्त गहराई में कोई और वस्तु है। आज भी वह्न वस्तु जहाँ की तह है। केवल उसके ऊपरी सतह का फेन हट गया है । आज भी उसके हृदय-मंदिर के अत्यन्त निभृत कक्ष में कोई देवता। स्तब्ध बैठा है जो निश्चय ही मेरी मौन पूजा में ही सन्तुष्ट रहता है। मेरे मानस को निपुतिका के दर्शन ने एकदम उत्तरंग बनाया ही नहीं- ऐसा कहना असत्य होगा । मैंने उसकी मानसी मूर्ति की कितनी श्रारा- धना की है वह मेरा अन्तर्यामी ही जानता है, पर मैं अपनी सीमा को जानता हूँ, भगवान् ने मुझे रुक सकने की शक्ति दी है । हाय, निपु- णिका का जीवन दुःख की भट्टी में ही जलते कटा है । मैं उसकी क्या सेवा कर सका हूँ ! अाज मेरी ही प्राण-रक्षा के लिये उसने सम्मोहन के प्रतिप्रसव की वलि-वेदी पर अपने को होम दिया है । ऐसा लगता है। कि भइिनी से उसने अपने पूर्व आकर्षण की बात कह दी है, नहीं तो भट्टिनी क्यों कहती कि अपना पैर मत छुड़ा, उसे शान्ति मिल रही। होगी । छिः, कैसी लजा की बात है ! मेरा मन कह रहा है कि निपु- णिका का मोह अभी कटा नहीं है । कहीं कोई चिनगारी अब भी सुलगी हुई रह गई है। हाय, मुग्धा ही है यह अब तक ! और मैं १ मैं जब अपना ही विश्लेषण करके देखता हूँ तो करतलगत मिलेक फल के समान स्पष्ट प्रतिभात होता है कि मेरी अराधना वंध्य रही है, इसमें कहीं फल-फूल का कोई चिह्न भी नहीं है । प्रत्येक कर्तव्य का कोई न कोई मानस उत्स होता है। कोई यश की लिप्सा से, कोई अर्थ की इच्छा से, कोई भक्ति की कामना से अपना कर्तव्य निर्धारित करता है, मैंने अपनी नाटक-मंडली क्यों तोड़ दी १ क्यों मैं छः वर्षों तक श्रवार की तरह घूमता रहा है क्या मेरे इस कर्तव्य का कोई मानस