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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३२४ बाणु भट्ट की अत्मि-कथा. उत्स है ? निपुणिका के प्रति कोई मोह मेरे मन में रह गया था क्या ? हाय, निपुखिका ने जब कहा था कि मेरा धूम।यित होना बंद हो गया है, मैं अब धधक उठेंगी, उस समय उसका चित्त कितना उत्क्षिप्त था! भट्टिनी तभी से किसी व्याकुल आशंका से बेचैन हैं, उनकी बाष्पप्लुत अखें मेरी समूची सत्ता का गला डालती हैं ! यहाँ मेरे आए तीन दिन हो गए। इतने ही में मैं क्या क्या देख रहा हूँ। भट्टिनी ने आज बड़े कातर स्वर में कहा है कि सौरभ हृद के निकटवर्ती किसी शिवसिद्धाय तन में प्रणिपात करने से सम्मोहन की सभी बाधाएँ दूर हो जाती हैं, ऐसा उन्होंने सुना है । मैंने उनसे जब कहा कि अवधूतपाद की दी हुई औषधि पर विश्वास करना ही शुभ है तो उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में श्रीसू ढरक आए । मैंने अधिक कुछ ने कहकर सौरभद में निपु- णिका को ले जाने का ही अश्वासन दिया । भट्टिनी की अखिों में आँसू देखता हूँ तो मेरा अन्तस्तल विदीर्ण होने लगता है, अधरोष्ठ सूखने लगता है, मस्तक स्वेदाद्र' हो जाता है और श्वास प्रक्रिया विक्षुब्ध हो अाती है । मैं कितना अवश हूँ ! भट्टिनी में एक परिवर्तन देख रहा हूँ। ऐसा लगता है कि कुछ अघटित घटने की आशंका ने उनके भीतर को झकझोर डाला है। ऊपर से वह हृदयन्तुद आलोडून बिल्कुल नहीं दिखाई देता । पर उनके प्रत्येक कार्य में एक प्रकार की अन्यमनस्कता आ गई है, चित्त में कहीं उत्कंठा की झंझा ज़रूर बह रही है, जो उनकी सहज व्यवस्थित बुद्धिता में व्यक्तिक्रम पैदा कर रही है। मुझ से निपुणिका के बारे में जब यह बात कहने आई तो ऐसा लगा कि अपना वक्तव्य ही भूल गई हैं। कुछ देर तक निर्निमेष मेरी ओर देखती रहीं। भट्टिनी को इतनी देर तक निर्निमेष भाव से देखते मैंने नहीं देखा था । जब मैंने उनका वक्तव्य जानने की अाग्रह किया तो वे इस प्रकार अकचका गईं जैसे कच्छी नींद से किसी ने जगा दिया हो । उस समय उनकी