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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की श्रम-कथा ३२५ शोभा देखते ही बनती थी--अयत्न-विसस्त चिकुर-रानि के भीतर वह अाद्रद्र' मुव-मण्डल शैवाल जाल से घिरे हुए, सीकर-सिक्त प्रफुल्ल शतदन के समान मनोहर लगता था, किन्तु कातरता के कारण शिथिल बनी हुई भ्र-लताएँ मनोजन्मा देवता के भन्न चाप की भांति भीपण मनहर शोभा विस्तार कर रही थीं। उनके पाटल-शाण अधर सूत्र आए थे अरि मेरे मन में अद्भुत आशंका का भाव उत्पन्न कर रहे थे । भट्टनी की कपोल-पालि में न उल्लास था, न विकास था, न कोई स्फूतिं थी। मानों समस्त वाह्य विकार भीतर चले गए हों, मानों समस्त अन्त:स्फुर किसी और गहरे केन्द्र में निमग्न हो गए हों । उस शोभा के सरोवर कहीं तरंग नहीं थी, चञ्चय नहीं था. धरातले र केवल एक गांभीर्य की स्थिरता दिखाई दे रही थी । हाय, वह कौन- दुःख है। जो भट्टिनी के भीतर अलोइन पैदा किए हुए है ? सौरभ हृद' भद्रश्वर दुर्ग से बहुत दूर नहीं था। भट्टिनी की इच्छा जान कर ग्राभीर सामन्त ने निपुण्का के लिए शिविका और मेरे लिये घोड़े की व्यवस्था कर दी। हमारे साथ कुछ विश्वस्त अनुचर भी दिए । पहर दिन चढ़ने पर हम वहाँ पहुँचे। निपुणिका को इस मनोहर हृद के देखने से बड़ा उल्लास हुआ। मुझे भी इसे देख कर बड़ी शांति मिली । ऐसा जान पड़ता था जैसे प्रलय काल में जबे समस्त दिशा का संधि-बंधन स्खलित हो गया था उस समय आकाश-मण्डल ही पृथ्वी पर उलट कर इस हृद के रूप में रूपान्तरित हो गया था, फिर आदि वराह के दन्त द्वारा उद्धारित धरित्री का रंध्र ही वारि-पूरित होकर यह विशाल सर बन गया था। पूर्व से पश्चिम तक प्रसारित सौरभ हृद अपनी शोभा का उपमान आप ही है । इस भीषण ज्वाला-वर्षीf ग्रीष्मा- संभवतः वर्तमान सुर झील, जिला अखिया, युक्त प्राप्त