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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३२८ बा भट्ट की अदम-कथा वैन्य सहकर के पल्लवों को कुतर रहे हैं, जो उन्मद् घटूबर-चक्र- वाल के मधुर गुजार से वाचाल बनी हुई है, जहाँ अचकित चकोर- तरुण मरीचांकु' का स्वाद ले रहे हैं जिसके चम्पों के पिंजर पराग से कपिञ्जन (तितिर पक्षी) पिंगलवर्ण के बन गए हैं, जिसमें फल-भार से निपति दाडिमी वृक्ष के नीड़ में कलविङ (गरैया) दम्पती केल- कलह में व्यस्त हैं, जहाँ एक दूसरे से उलझे हुए वन्य कपत पोत अपने छोटे पक्षकों से कुसुम-धूलि झड़ रहे हैं, जहां शुक सारिका के कुतरे हुए 'फलों के बल्कल वन-भूम के ग्रामोद-मग्न कर रहे हैं, जिसमें - रहने वाले तरुण मदमत्त पारावत अपने पक्ष-क्षेप से पुष्पस्तवकों को चारों श्रार विस्वस्त कर रहे हैं--यह मधुर मनोहर शोभा की त्रानि वनराज मनुश्य जाति से बहुत कम परिचित जान पड़ती है। भगवान् शूलपाणि ने अपने निवास के लिये क्या ही सुन्दर वन निर्वाचित किया है । निपुणिका अाजे बहुत प्रसन्न है, वह् उड़ती-सी चल रही है। ऐसा लग रहा है कि वह जीवन का फल पा राई है। हृदतट से सिद्धा- यतन तक हरित तृण-शावलों का ऐसा मनोरम अास्तरण देख कर बैड पड़ने की वासना स्वाभाविक है । बरे श्रावास में हमने अपने को रोका । पहले भगवान् शूलपाणि के प्रणिपात फिर प्रदक्षिणा और फिर अन्य कार्य । हम सीधे मंदिर में गए । चार स्तंभों के ऊपर स्फटिक का एक छोटा-सा मंडप था उसी के नीचे त्रिलोक-गुरु महादेव का चतुर्मुखी लिंग थी जो मुक्ताधवल प्रस्तर से बना था। निपुरिएका ने भक्ति-गद्गद हेाकर उस दिव्य मूर्ति के चरण-तल में तत्काल उद्धत ग्यारह श्राद्र' सद्म चढ़ा कर प्रणिपात किया। ऐसा जान पड़ता था। कि मदन-विरह-विधुरा रति देवी ही त्रिनयन का केाप शमन करने के लिये प्रणत हुई हैं । निपुणिका के रोम-रोम से कृतज्ञता की ज्योति निर्गत है। रही थी । महादेव पर चढ़ाए हुए उन जल-बिंदु-सावी • कमलों को देखकर 'मेरा मन विगलित हो गया । वे ऊर्ध्वविपाटित