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बाण भट्ट की आत्म-कथा

वाणु भट्ट की अात्म-कथा लिया है, परन्तु एक बात पूछने का लोभ होता है भट्ट । निपुण का की अाँवों में लज्जा और प्रायः एक ही साथ उदय हो ग्रए। मैंने स्नेह- भरे करठ से कहा-'क्या जानना चाहती हैं नि उनिया ! उसकी आँख झुक गई, पतली-छरहरी अँगुलियाँ एक दूर्वादल को नोचने में उलझ गई', अचल को उसने अकारण ही सीमल के ऊपर सरका लिया और गद्गद भाव से बोलीं-'तुम्हारी उदासी का कुछ श्रय क्या हम अभागिनी को प्राप्य था भट्ट ?” मैंने प्रेमपूर्वक उत्तर दिया---‘अवश्य था निउनिथा, मैं क्या सचमुच जड़ पाषाण-पिण्ड हैं ! निपुण का का मुत्र-मण्डल नदीप्त हो गया। उसकी स्वर-जडिमा जात रही । मेरी श्रीर सजल नयनों से देवती हुई बोली-‘कृतार्थ हूँ आर्य, मेरे वन्ध्य जन की यही परम सार्थकता हैं। अधिक के लिये मेरा लोभ भी नहीं है, योग्यता भी नहीं है । मैं बड़ी पापिनी हूँ अार्य, क्यों मुझे दूसरे के सुख से ईष्य हो जाती हैं । मैं वा-धर्म में भी असफल हूँ और सग्य-धर्म में भी । हाय, तुम अगर मेरी पाप-ज्वाला देख सकते हैं सौर भेश्वर के दर्शन से यदि यह पाप-बाल शान्त हो जाय तो मेरा जीवन बन जाय । परन्तु तुम मुझे क्षमा करना अायं । मेरा मन आज हल्का मालूम हो रहा हैं ! निपुणिका यह सच क्या कह रही हैं ! एक प्रहर दिन रहते हम वहाँ से प्रस्थित हुए और जब तक भग- वान् भर चिमाली अपनी लाल किरणों को समेटने में कृतकार्य हुए तब तक हम फिर भद्रश्वर दुर्ग । पहुँचे । भट्टिनी व्याकुल भाव से हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। उन्होंने बड़े स्नेह से हमारा स्वागत किया । हम जब कुछ सुस्ता लिए तो भट्टिनी ने मुझे बुला कर एक पत्र दिया। पत्र कुमार कृवर्धन का था। बड़े संक्षेप में उन्होने अपनी बहन कुमारी चन्द्रदीधिति को स्नेह संभाषण कहा है अौर महा- राजाधिराज का यह संदेश लिख भेजा है कि वे अपनी अपरिचिता