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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा रहे हो भेइ ?' मैंने उनकी ओर देखा । बोला-'देवि, भट्टिनी, आप का आदेश ही मेरा कर्तव्य है । मैं केवल यही सोच रहा हूँ कि फिर किसी जाल में न जा फहूँ ।' निपुणिका मुझे तिरस्कार-सी करती हुई बोली-“कैसा जाल भट्ट, स्पष्ट बात को तुम फिर अस्पष्ट बना रहे हो । अभीरराज की सेना के साथ भट्टिनी स्वतंत्र राज्य की रानी की भई ति चलेंगी। महाराजाधिराज को ग़रज़ होगी, सौ बार भट्टिनी के दर्शन का प्रसाद जांचने आयेंगे । भट्टिनी की मर्यादा के विरुद्ध पत्ता भी खड़का तो रक्त की नदी बह जायगी । और कोई नहीं मरेगा तो तुम और मैं तो निश्चय ही इस कार्य में बलि हो जायेंगे। इसमें डर कहाँ हैं ? मैं भट्टिनी की मर्यादा की कसौटी होकर चलँगी । तुम प्राण देने में क्यों हिचकते हो ? मैंने शान्तिपूर्वक कहा‘मरना जब जरूरी हो। जायगा तो बाण भट्ट अवश्य मरेगा पर उसके पहले ही वह क्यों मरे १५ भट्टिनी ने मानों कुछ सुना ही नहीं । बोलीं-“यदि स्थावीश्वर चलना ही है तो चलो । विलम्ब की क्या ज़रूरत है ? यदि आचार्य भर्वपाद वहाँ आ गए होंगे तो अवश्य वे इधर चल पड़ेंगे। वे अशी- तिपर वृद्ध हैं, उन्हें बहुत कष्ट होगा। अभीरराज के एक सहस्र सेवक इस समय पर्याप्त हैं । कुमार मेरे भाई हैं। उनका स्नेह मेरी अमूल्य निधि है, पर उनके राजकीय आदेश मेरे लिये मान्य नहीं हैं। मैं आभीरराज से कुछ भी कहने को प्रस्तुत नहीं हैं। उन्होंने मेरे ऊपर जो कृपा की है वह केवल वे ही कर सकते हैं। वे अपना कर्तव्य स्वयं निर्णय कर लेंगे । भट्टिनी के इस द्विधाहीन, संकोचहीन स्पष्ट आदेश से मेरे नसों में जान आ गई । श्रीज तक भट्टिनी ने इतना स्पष्ट आदेश इतनी अस्खलित भाषा में कभी नहीं दिया है। उन्होंने निश्चय ही अपना कर्तव्य निश्चय कर लिया है। पर इस कर्तव्य का उत्स क्या है १ भट्टिनी ने मुझे दुविधा और असमंजस से बचाने के लिये यह निश्चय किया है, या उनके दुःखदग्ध हृदय में पितृदर्शन की उत्कंठा