पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३४६

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अष्टादश उच्छ्वास स्थाण्वीश्वर से लगभग कोस भर की दूरी पर भट्टिनी का स्कन्धा- वार सजित हुआ । कुमार कृष्णवर्धने स्वयं उपस्थित थे। उन्होंने बड़े प्रेम और आग्रह के साथ अनुरोध किया कि महाराजाधिराज द्वारा अायोजित उत्सव में वे सम्मिलित हों पर भट्टिनी ने दृढ़-शान्त कण्ठ से अस्वीकार कर दिया । केवल अन्यथा शंका दूर कर देने के उद्देश्य से मुझे उत्सव सभाओं में उपस्थित रहने की अनुमति दे दी । भट्टिनी प्रसन्न थीं । कुमार से बातचीत हो जाने से उनके मन के अनेक विकार साफ़ हो गए थे । भट्टिनी को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि वाभ्रव्य कुशलपूर्वक है और महारानी राज्यश्री की सेवा में नियुक्त हो गया है । ऐसा लगता था कि भट्टिनी के चित्त से एक दीधे शल्य निकल गया है । कुमार ने उन्हें यह भी बताया कि छोटे महाराज की संपत्ति राज-कोश में ले ली गई हैं और यह लम्पट सामन्त भट्टिनी की जैसी इच्छा होगी वैसा ही दण्ड़ पाएगी । कुमार ने दग्धकंठ से कहा, “महा- राजाधिराज हर्षवर्धन की भगिनी के प्रति अशिष्ट आचरण का उचित दएड इस दुर्मद सामन्त को अवश्य दिया जायगा ।' कुमार के श्रा जाने से भट्टिनी ही नहीं, निपुणिका भी आश्वस्त हुई । उन्होंने उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जो देवपुत्र-नन्दिनी की सखी के उपयुक्त था । सब मिलाकर कुमार कृष्ण विजयी हुए। सद्व्यवहार और मधुर भाषण ही उनके अमोघ अस्त्र सिद्ध हुए। भट्टनी ने कृतज्ञता भरी दृष्टि से कुमार को देखा और मौन रह गई। उनके सहज अनुभव से कुमार भी प्रभावित हुए। भाई-बहन का यह मिलन अपूर्व था । भदिनी का मन प्रसन्न था। उनकी दुग्ध-मुग्ध मधुरच्छवि इस सहज आनन्द की अभी से उफुल मालती सत्ता की भाँति अभिराम