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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अाम-कथा ३३६ हो गई थी। मानसिक आनंद भी कैसा अद्भुत रसायन है। भट्टिनी की शोभा आज सौगुनी बढ़ गई है-अधरों की बंधूक-बंधुता और भी निखर अाई है, अाँखों की वह स्निग्ध शोभा जो तरुण केतक पत्रों को भी लजित करती थी, कई गुना बढ़ गई है । कपोलों की मधुक पुष्प की कली के समान मोहक कान्ति और भी मधुर हो उठी हैं, ग्रीवा का केंबु-विडंबन उल्लास और भी उत्तरंग हो उठा है । अाहा, वातुल कवि व्यर्थ ही कल्पना के जाल में उलझ कर छटफाया करते हैं । उन्होंने रामणयिक-निधि की अधिदेवता को, सौन्दर्य के मुग्ध निकेतन को, शोभा के उद्वेन समुद्र को देवा ही कहाँ ! भट्टिनी की प्रसन्न देख कर मेरा रोम-रोम उच्छवासित हो उठा। उन्हें भी शायद मेरी प्रसन्नता का आनंद मिला था। उस समय बाहर कोई गान कर रहा था । भट्टिनी ने मुझे बुलाया और निव्यज-मनोहर मुसकान के साथ कहा---'आज (हुत प्रसन्न दिख रहे हो भट्ट !: प्रसन्न ही तो हूँ ! यदि शक्ति होती तो भट्टिन की इस शोभा की प्रतिमूर्ति अपना हृदय गला कर गढ़ लेती । अंगुलि से संकेत करते हुए उन्होंने कहा--'देखो तो बाहर कौन जा रहा है ! आनंद के रंग में डूबता उतरता मैं बाहर आया । देखता हूँ तो दो गैरिकधारिणी भैरवियाँ मधुर उदात्त कंठ से गाने गा रही हैं और अभीर सैनिक मंत्रमुग्ध से बने सुन रहे हैं। गाने अपभ्रंश भाषा में था। भैरवियों ने गाथा- “अमृत के पुत्रो, नागाधिराज हिमालय की शीतल छाती में अजे हुलचल दिखाई दे रही है । कोई जानता है कि पार्वती गुरु के हृदय में आज इतनी व्याकुलता क्यों है ? जवानी, प्रत्यंत दस्यु अा रहे हैं। समुद्रगुप्त के प्रताप ने क्या किया, चंद्रगुप्त के रण-हुँकार ने क्या किया, मौखरियों की दुर्दान्त वाहिनी ने क्या किया १ म्लेच्छ अब भी जीवित हैं । अमृत के पुत्रो, अत्यन्त दस्यु आर रहे हैं ! अायवर्स के तरुणो, जीना सीखो, मरना सीखो, इतिहास से १२