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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण' भट्ट की आत्म-कथा ३३७ हो गई थी । मानसिक आनंद भी कैसा अद्भुत रसायन है । भट्टिनी की शोभा आज सौगुनी बढ़ गई है—-अधरों की बंधूक-बंधुता और भी निखर अाई है, आँखों की वह स्निग्ध शोभा जो तरुण केतक पत्रों को भी लजित करती थी, कई गुना बढ़ गई है। कपोलों को मधुक पुष्प की कली के समान मोहके कान्ति और भी मधुर हो उठी है, ग्रीवा का कंबु-विडंबन उल्लास और भी उत्तरंग हो उठा है। अाहा, वातुल कवि व्यर्थ ही कल्पना के जाल में उलझ कर छटफटाया करते हैं । उन्होंने रामयिक-निधि की अधिदेवता की, सौन्दर्य के मुग्ध निकेतन को, शोभा के उद्वेन समुद्र को देखा ही कहाँ ! भट्टिनी को प्रसन्न देख कर मेरा रोम राम उच्छ वासित हो उठा। उन्हें भी शायद मेरी प्रसन्नता का आनंद मिला था। उस समय बाहर कोई गान कर रहा था । भट्टिनी ने मुझे बुलाया और नियजि-मनोहर मुसकान के साथ कहा---'आज बहुत प्रसन्न दिख रहे हो भट्ट !! प्रसन्न ही तो हूँ ! यदि शक्ति होती ती भट्टिन की इस शोभा की प्रतिमूर्ति अपना हृदय गला कर गढ़ लेता । अंगुलि से संकेत करते हुए उन्होंने कहा-“देखो तो बाहेर कौन जा रहा है ! आनंद के तरंग में डूबता उतराता मैं बाहर आया। देखता हूँ तो दो गैरिकधारिणी भैरवियाँ मधुर उदात्त कुंठ से गाने गा रही हैं और अभीर सैनिक मंत्रमुग्ध से बने सुन रहे। हैं। गाने अपभ्रंश भाषा में था । भैरवियों ने गाया--- | ‘अमृत के पुत्र, नागाधिराज हिमालय की शीतल छाती में आज हलचल दिखाई दे रही हैं । कोई जानता है कि पार्वती गुरु के हृदय में आज इतना व्याकुलता क्यों है ? जवानो, प्रत्यंत दस्यु अा रहे हैं। समुद्रगुप्त के प्रताप ने क्या क्रिया, चंद्रगुप्त के रण-हुंकार ने क्या किया, मौखरियों की दुर्दान्त वाहिनी ने क्या किया । म्लेच्छ अब भी जीवित हैं । अमृत के पुत्रो, प्रत्यन्त दस्यु आ रहे हैं ! आर्यावर्त के तझणो, जीना सीखो, मरना सीखो, इतिहास से