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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा आने के कारण तुम्हीं हो; परन्तु दोष तुम्हारा नहीं है । दोध मेरा ही है । तुम्हारे ऊपर मुझे मोह था। उस अभिनय की रात को मुझे एक क्षण के लिए ऐसा लगा था कि मेरी जीत होने वाली है; परन्तु दूसरे ही क्षण तुमने मेरी आशा को चूर कर दिया। निर्दय, तुमने बहुत बार बताया था कि तुम नारी-देह को देव-मन्दिर के समान पवित्र मानते हो; पर एक बार भी तुमने समझा होता कि यह मन्दिर हाड़-मांस का है, ईट-चूने का नहीं ! जिस क्षण मैं अपना सर्वस्व लेकर इस आशा से तुम्हारी झोर बढी थी कि तुम उसे स्वीकार कर लोगे. उसी समय तुमने मेरी अाशा को धूलिसात् कर दिया। उस दिन मेरा निश्चित विश्वास हो गया कि तुम जड़ पाषाड़-पिण्ड हो; तुम्हारे भीतर न देवता है, न पशु, है एक अडिग जड़ता। मैं इसीलिए वहाँ ठहर नहीं सकी। जीवन में मैंने उसके बाद बहुत दुःख झेले हैं; पर उस क्षण-भर के प्रत्याख्यान के समान कष्ट मुझे कभी नहीं हुआ । छः वर्षों तक इस कुटिल दुनिया में असहाय मारी-मारी फिरी और अब मेरा मोह भकि के रूप में बदल गया है । भट्ट, तुम मेरे गुरु हो, तुमने मुझे स्त्री-धर्म सिखाया है । छः वर्ष के कठोर अनुभवों के बल पर मैं कह सकती हैं। 'कि तुम्हारी जड़ता ही अच्छी थी--मैं अभागिन थी, जो तुम्हारा अश्रिय छोड़ कर चली आई । मेरे जीवन में जो-कुछ घटा है, उसे जानने की क्या ज़रूरत है १ आजकल मैं पान बेचती हूँ और छोटे राजकुल के अन्तःपुर में पान पहुँचाया करती हैं। सत्र मिलाकर मैं दुःखी नहीं हूँ। तुम मेरी चिन्ता छोड़ो । जहाँ जा रहे हो, वहाँ जाओ। यदि इस नगर में रहो, तो कभी-कभी दर्शन पाने की आशा मैं अवश्य रखें गी । पर तुम इस दुकान पर अधिक देर तक मत ठहरी । यहाँ आने वाले लोग स्त्री-शरीर को देव-मन्दिर नहीं मानते ।' इतना कहने के बाद उसने एक बार हँस कर मेरी ओर देखा । उस दृष्टि में अपने अपर एक प्रकार की वितृष्णा का भाव या ; पर किसी प्रकार की