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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३४२ बार भट्ट की अात्म-कथा होगी, जिस दिन घन-मसूण मेघ-माला में अचंचल विद्युल्लता निरन्तर चमकती रहेगी । श्राहा, वह दिन कितना मंगल मय होगा ! भट्टिनी ने तिर्यक् अपांग से देखा, बोलीं-क्या सोच रहे हो भट्ट ! क्या सोच रहा हूँ ! भट्टिनी ने अपने किसलय के समान लाल अंगुलियों से उत्तरीय प्रान्त को सीमन्त रेखा पर खींच लिया और धीरे-धीरे कहने लगीं---

  • एक बात बताऊँ भट्ट, मेरा जन्म रोमकपत्तन के उत्तरबती अस्त्रीय वर्ष

में हुआ था, मैं वहाँ से पुरुषपुर तक पिता की गोद में बड़ी हुई हैं। मैंने अनेक देश देखे हैं, अनेक समाज देखे हैं, अनेक जातियाँ देखी हैं, बाल्यभाव के कारण सव का रहस्य नहीं समझ सकी हैं परन्तु श्रआर्यावर्त जैसी विचित्र समान व्यवस्था मैंने कहीं नहीं देती है। यहाँ इतना स्तर भेद है कि मुझे आश्चर्य होता है कि यहाँ के लोग कैसे जीते हैं । फिर यहाँ एक से बढ़कर एक ऐसे सत्पुरुप और सती स्त्रियों देखी हैं कि मुझे कभी-कभी यह भी आश्चर्य होता है कि ये देवता- समान लोग क्यों मर जाते हैं ? यहाँ का जीवन और मृत्यु दोनों ही मेरे लिये पहेली हैं !' भट्टिनी ने अपने चेहरे पर निर्विकार भाव बनाए रखने का थोड़ा-सा प्रयत्न किया और फि' बोलीं-यही देखो, तुम यदि किसी यवन-कन्या से विवाह करो तो इस देश में यह एक भयंकर सामाजिक विद्रोह माना जायगा । परन्तु यह क्या सत्य नहीं है कि येवन कन्या भी मनुष्य है और ब्राह्मण युवा भी मनुष्य है ! महामाया जिन्हें म्लेच्छ कह रही हैं वे भी मनुष्य हैं । भेद इतना ही है। कि उनमें सामाजिक ऊँच-नीच का ऐसा भेद नहीं है। जहाँ भारतवर्ष के समाज में एक सहस्र स्तर हैं वहाँ उनके समाज में कठिनाई से दो तीन होंगे । बहुत-कुछ इन अभिीरों के समान समझो । भारतवर्ष में जो ऊँचे हैं वे बहुत ऊँचे हैं, जो नीचे हैं उनकी निचाई का कोई अार- पारनहीं; परन्तु उनमें सब समान हैं। उनकी स्त्रियों में रानी से लेकर