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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३४४ बाए भट्ट की आत्मकथा भट्टिनी की वाग्धारा श्राज बाँध तोड़ देना चाहती है । यहाँ अाकर उन्होंने अपने को रोकना चाहा परन्तु मैं हजोर घोड़ा जिस प्रकार व की वाधा पा कर भी कुछ दूर चला ही जाता है उसी प्रकार उनकी वाग्धारा संयत होने पर भी थोड़ा और बढ़ ही गई-~-एक जाति दुसरी को म्लेच्छ समझती है, एक मनुष्य दूसरे को नीच समझता है, इससे बढ़कर अशान्ति का कारण और क्या हो सकता है भट्ट । तुम्हीं ऐसे हो जो नर लोक से लेकर किन्नर लोक तक व्याप्त एक ही रात्मक हृदय, एक ही करुणाथित चित्त को हृदयंगम कर सकते हो । मनुष्य लोभ-वश, मोह-वश, द्वेष-वश पशुता की ओर बढ़ता जा रहा है, तुम इसके हृदय को संवेदनशील और कोमल बना सकते हो । देखो भट्ट, इस शुष्क कान्तार में अन्तःस्रोता सरिता भी बह रही है, इस भोग-पूजा के वल्कल के नीचे निमेह वैराग्य का देवता स्तब्ध है, यह संवाद तुम्हारे सिवा दूसरा कौन दे सकता है । भट्ट, मैं तुम्हारी काव्य-संपद् पाकर शक्ति पा जाऊँगी । तुम मेरी विनती स्वीकार करो ।' . भट्टिनी के स्वर में यह कैसी जट्टिमा है ? प्रथम परिचय के समय भी भट्टिनी ने मुझे भारतवर्ष का द्वितीय कालिदास कहा था और आज भी कह रही हैं । परन्त उस दिन वाणी में ऐसी जड़िम नहीं थी, उस दिन उनके अपांग इतने शिथिल नहीं थे, उनका मुख इतना दीप्त नहीं थी, वाग्धा इतनी खर प्रवाह नहीं थी। मैं नया सुन रहा हूँ। मेरे रोम-रोम से भट्टिनी की वाणी झंकृत होना चाहती है-इस नर लोक से लेकर किन्नर लोक तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है ! क्या इस सत्य के प्रचार से मनुष्य की दुर्मद वासनाएँ, अनियंत्रित कामनाएँ, अविचारित धारणाएँ कुछ कम भीषण हो जायेगी ? क्या यह संभव है। कि काव्य से मनुष्य की दयाहीन-विवेकहीन-धर्महीन वृत्तियों उच्चतर काय में नियोजित हो जायँ १ कालिदास के काव्य से यह उद्देश्य क्या सिद्ध हुआ है ? भट्टिनी क्या चाहती हैं १ कैसे म्लेच्छ समझे जाने वाले