पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२४
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा पश्चात्ताप अनुशोचना का लेश भी नहीं था। जरा रुककर वह फिर कहने लगी-भट्ट, मुझे किसी बात का पछतावा नहीं है। मैं जो हैं, उसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकती थी । परन्तु तुम जो-कुछ हो, उसे कहीं श्रेष्ट हो सकते हो। इसीलिए कहती हूँ, तुम यहाँ मत रुको । मैं पश्चात्ताप करू, तो जिस नरक में पड़ी हैं, वहाँ भी स्थान नहीं मिलेगा। तुम सम्हल जाओ, तो जिस स्वर्ग में स्थान पाओगे, उसकी कोई कल्पना मेरे मन में भी नहीं है, तुम्हारे मन में भी नहीं है। मैंने दुनिया कम *हीं देखी है । इस दुनिया में तुम्हारे जैसे पुरुष रत्न दुर्लभ हैं ।' निपुणिका की आँखें नीची हो गई, जैसे कुछ ऐसी बात कह गई हो, जिसे कहना नहीं चाहिए था और उसकी अँगलियाँ तेज़ी से ताम्बूल-पत्र को खदिर-राग से रंगने में जुट गई । निपुगि का की अन्तिम बात मेरे मर्म में चुभ गई। वह अगर पश्चात्ता। वरती है, तो जिस नरक में पड़ी है, वहाँ भी स्थान नहीं मिलेग; १ वह कुल-भ्रष्टा स्त्री है, उसके सद्गुणों का समाज में क्या मूल्य है ? दुर्गणो की तो फिर भी कुछ-न-कुछ पूछ है ही। मैंने उसकी कोटरशायिनी अाँखों को एकबार फिर देखा। उनमें असू भरे हुए थे । मैं बोला--- "निउनिया, तू झूठ बोलती है। तू पछता रही है, त कष्ट में है, तु आश्रय चाहती है, तू मुझे यहाँ से हटने नहीं देना चाहती। मैं जो पहले था, वह आज भी हैं, सारी दुनिया भी तुझे मेरे अश्रय में अलग नहीं कर सकती । यह दूकान अभी बन्द कर दे । जहाँ लोग तेरी कोई बात नहीं जानते, ऐसे किसी स्थान पर शान्ति- पूर्वक रह । मैं तुझे कीचड़ में छोड़कर नहीं जा सकता। मेरे प्रति तेरा मोह कट गया है, यह अच्छी बात है। तू इस कालिमा-भरी नगरी के राजमार्ग को छोड़ दे। तेरी अखेिं कैसी पैंस गई हैं । हा, अभागी, तु। मुझ से भी छिपा रही है ! नि पुणिको इस बार घायल हो गई। वह फूट-फूट कर रो पड़ी। दो-एक ग्राहक इस समय दुकान पर आते