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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३४८ बाण भट्ट की आत्मकथा ही होती है। मैंने फिर बढ़ावा दिया–कै बार बंध चुके हो बंधु ! धावक ने लापरवाही के साथ उत्तर दिया--'अरे गुरु, धाव* की बात छोड़ो। पद्म पत्र पानी में रह कर भी निर्विकार रहता है । लेकिन तुमसे सच सच कहूँ न मित्र, यह नृत्योत्सव मुझे अच्छा नहीं लगता। किसी चातुल कवि ने एक बार वर्षा-काल के साथ नर्तकी के नृत्योल्लास का अनुप्रास सुना था पर एक क्षण के बाद ही वह इतना कल्पना-दरिद्र बना कि कुछ मत पूछो । कविराज ने अंबर में मेध का झाडेवर देखा, वर्तमान विद्युल्लता देखी अौर घन-गर्जन सुना तो बोल उठे कि इस नाट्याडंबर के समय विद्युत्-नर्तकी के नृत्यारंभ का मंगल मृदंग बज उठा है ! और फर १ फिर जानते हों क्या हुआ । दिल जले बटोही केलि मन्दिर में घुस गए जिसमें आँगन के फुल्ल तक की शाखा पर बैठे हुए कौए की अावाज सुनकर उत्सुक प्रियतमा पहले से ही जा बैठी थी १ छिः, यह भी कोई तक है ? मैंने छेड़ने के उद्देश्य से कहा-‘तम्हें किसमें तक मिलता दिखता है मित्र ! धावक की जीभ ज़रा भी उलझी नहीं, झम से बाल उठा--‘तुक तो मित्र, प्रेस्रा विलास (झूला) में है। मेध-निःस्वन और धारा की रिमझिम के साथ तो बस प्रेखा का ही तुक मिलता है । अमन्द सुवर्ण किंकिणियों का मंद-मंद झणन, झणज्झणित मेखला की तरल झंकार और वाचाल कंकणों की मधुर रुनझुन के साथ झूलती हुई विदयुगौर किशोरियाँ ही इस वर्षाकाल में घुलोक | एक अज्ञात कवि के निम्नलिखित श्लोकों से तुलना की जा सकती हैं--- अष्ट्वालम्बर सम्बरे घनकृतं सौदामिनी नर्तकी नृत्यारम्भ मृदंग मंगल रवं श्रुत्वा च तद्गजितम् पुष्प्यपुष्पभरानताङ्ग तस्कंधावसायस- क्वाणकर्यान सोसत्व प्रियतमं पान्था ययुर्मेन्दिरम् ।