पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३५१
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बीण भट्ट की अरम-कृया ३५१ तो बस बज हो गईं। विरोधी विद्वानों को तो यहाँ के लोग यों चुटकी पर उड़ा देते हैं ।' धावक जाते समय बड़े गाढ़ आलिंगन में मुझे बाँध कर तब बिदा हुआ। मैं दूर तक उसे पहुँचाने गया । एक क्षण के लिये भी उसने अपनी रसना को विश्राम नहीं दिया । उससे बहुत- सी बातें मालूम हुई । अवधूत अघोर भैरव यहीं चण्डी-मण्डप में हैं। सुचरिता और विरतिवज्र की तीन लोक से न्यारी साधना अब शान्ति में चल रही है । उड्डियान पीठ का भरड वैष्णव न जाने कहाँ लोप हो गया है। महाराजाधिराज ने रत्नावली नाम से एक सुन्दर नाटिका लिखी हैं । इसमें उन्होंने मार-वधुओं के शरण्य बोधि-स्थित मुनींद्र (= बुद्ध) को प्रार्थना नहीं की है, बल्कि पार्वती और लक्ष्मी के नाम लेकर शिव और हरि की प्रार्थना की है, धावक के कुछ श्लोक भी उसमें जोड़ दिए गए हैं । ऐसी ही और भी बहुत-सी बातें इस मस्तराम से अनायास ही मालूम हो गई । जब मैं धावक को पहुँचा कर लौटा तो मन में उसकी बताई बातें चक्कर काट रही थीं। कितनी सहज आनंदधारा इस कवि के सर्वाङ्ग को घेर कर उच्छवसित हो रही है। वह कौन-सा रस निर्भर है जिससे इतनी उमंग, इतना उल्लास, 'नागानंद के इन श्लोकों से तुलनीय--- ध्यानब्याजमुपेत्य चितयसि कामुन्मील्य चक्षुः क्षणं पश्यानङ्गशरासुर जनमिमं त्रातापि नो रक्षसि ।। मिथ्या कारुणिकोऽसि निघू तरस्त्वत्तः कुतोऽन्यः पुमान् इत्थं मारवधूभिरिरभिहतो धौधौ जिनः पातु वः ।।१।। कामेनाकृष्य चापं हतपटुफ्टहा वालिगभिमरवीरै-- श्रृंभङ्गोरकम्पज़म्भास्मितललितवता दिव्यनारीजनेन । सिद्धेः प्रह्लोत्तमांनै पुलकितवयुषा विस्मयाद्वासवेन । ध्यायन् धेरवासावधालित इति वः पातु दृष्टो मुनीन्द्रः॥२॥