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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३५२ बाण भट्ट की आत्मकथा इतनी नि:संता झरती रहती है । न कहीं विरोधी पक्ष की संभावना से अा का है, न किसी पर भले-बुरे प्रभाव से प्रयोजन । मानों वह इस दुनिया से उमंग का रस खींचने के लिये ही पैदा हुआ है। दूसरों को इससे सुख पहुँचे या दुःस्त्र, वह अपना रस उसी प्रकार निकाले लेगा जिस प्रकार दलित इहु-दण्ड से किसान निकाल लेता है । धावक ने कहा है कि चारुस्मिता का नृत्य कान्यकुब्ज की विद्रोही जनता को वश में ले आने का अस्त्र है । यह क्या सत्य है ? यह कितना मर्मतुद संवाद है, पर धावक कितने सहज भाव में यह संवाद कह गया। चारुस्मिता का यश मैंने सुना है, उसके गुण आज धावक ने बताए हैं, हार्य, कितनी गुण-सम्पत्ति है और कितने नोच उद्देश्य से उसका उपयोग हो रहा है । गणिका नगर का अंतर होती है या नगर का अङ्गार ? वह क्या एक ही साथ अमृत और विप का मिश्रण है ? शूद्रक ने वसन्तुसेना को पद्महीन लक्ष्मी, अनङ्ग देवता का ललित अस्त्र, कुल बधुओं का शोक और मदन वृक्ष का पुष्प कहा था। भाग्य का फैसा दुर्ललित परिहास है ! जो लक्ष्मी है वही शक भी है, जो फूल है वही मारणास्त्र भी । भट्टिनी कहती हैं कि जिन्हें तुम म्लेच्छ समझते हो उनकी स्त्रियों में रानी से लेकर परिचारिका तक के और गणिका से लेकर वार-वनिता तक के सैकड़ों स्तर नहीं हैं । यह मेरे लिये एकदम विचित्र सुम्वाद है। मेरा मन कहता कि स्वर्ग उसी लक्ष अपमा रेषा प्रेरणमनङ्गस्य ललित कुलमीण शोको मदनचरवृक्षस्य कुसुमम् ।। सक्षत गच्छन्ती रति समयतजाप्रणयिनी रतिक्षेत्र में प्रियपथिकसाथै लुगा ।। कटिक १।११