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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा समाज में होगा। यह जो दुःख-ताप है, निर्यातन है, धर्षण है, परदारा- भिमर्श है, यह विकृत समाज-व्यवस्था के विकृत परिणाम हैं। भट्टिनी इस बात को समझ गई हैं। उनके रक्त की ज्वाला में जलकर यह पवित्र ज्योति प्रकट हुई हैं। म्लेच्छ में शायद शास्त्र-चर्चा का अभाव है, धर्म-साधना की कमी है, दरिद्रता का वास है। ये बातें अगर सुधार दी जायें तो वह स्वर्ग बना ही हुआ है । यहाँ स्वर्ग बनना कठिन है। यहाँ स्वार्थों का संघात हैं, लोभ-मोह का प्राबल्य है । महाकवि ने जिस यक्ष लोक की कल्पना की थी उसमें सामाजिक मर्यादा समान थी, असू अगर थे तो सिर्फ अानंद के, पीड़ा अगर थी तो प्रेम की, वियोग अगर था तो प्रणय-कलह का और जरा-मृत्यु का तो वहाँ कोई चिह्न भी न था—भट्टिनी जो कुछ कह रही हैं उससे गिरिसकट के उस पार इस कल्पलोक का साक्षात्कार पाया जा सकता है ! परन्तु मुझमें क्या वह शक्ति है ? मैंने सुना है कि गिरि संकट के उस पार अत्यन्त घृणित म्लेच्छ जातियाँ बसती हैं । लुटमार ही उनका व्यवसाये है, देवायतनों को भ्रष्ट करना ही उनका धर्म है, ब्राह्मणों और श्रमणों को वध करना ही उनका आमीद है, कुल-वधुओं और बालिकाओं का धर्षण हो उनका विलास है, हत्या और आग लगाना ही उनका पावन कर्तव्य है । पुरुषपुर से साकेत तक विशाल जनपद को उन्होंने रौंद डाला १ कालिदास के निम्नलिखित श्लोक से तुल०- अनन्दोत्थं नयन सलिले यत्र नान्यैनिमित्तै- नान्यस्तापः कुसुमगर जादिष्ट संयोग साध्यात् नाप्यन्यस्मात् प्रणय कलाद्विप्रयोगोपपत्ति-- चिंतेशानां न खलु वषो यौवनादन्यस्ति ।। | –मेच० २१ ४