पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३५४
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा था । परपराक्रम से हम सुनते आ रहे हैं कि महाकवि ने रघुवंश में विश्वरत अयोध्या का वर्णन करने के बहाने इन्हीं निघृण लुटेरों के वुकृत्यों का वर्णन किया हैं । इस दारुण विध्वंस लीला को स्मरण करता हूँ तो रोए खड़े हो जाते हैं-दिनन्त-कालीन प्रचण्ड अांधी से हिन्न-भिन्न मेघ-पटले की भाँति नगरियां श्रीहन हो गई थीं; जिन राजपथ पर घनी रात में भी निर्भय विचरण करने वाली अभिसारि- काशों के नुपुरों की रुनझुन सुनाई देती थी उन पर शृगालों के विकट रव सुनाई देने लगे थे; जिन पुष्करिणियों में जल-क्रीड़ा कालीन मृदंग की मधुर ध्वनि गमगमाया करती थी, उन का निर्मल जल जंगली भैंसों के लोटने से गंदला हो गया था; मृदंग के ताल पर नाचने के अभ्यस्त और सुवर्ण यष्ट्रियों पर विश्राम करने वाले क्रीड़ामयूर जंगली बन गए थे और उनके मृदुल वहुंभार दावाग्नि से झुलस गए थे; अट्टालि- काअ के जन सीढ़ियों पर रमणिया के सराग पद-संचरण किया धरते थे उन पर व्याघ्रों के लहूलुहान पैर दौड़ा करते थे; बड़े बड़े राजकीय मद मन र जराज जो पद्मवन में अवतीर्ण होव.र मृणाल नालों द्वारा ३, सुका की संवर्धना किया करते थे, सिहों से आक्रान्त हो रहे थे; सौधस्तंभ पर लकड़ी की बनी स्त्री मूर्तियों का रंग धूसर हो गया था और उन पर सांपों की रुटकती हुई केचले ही उत्तरीय का कार्य करने लः थीं; राजमहल के अमल•धवल प्राचीर काले पड़ गए थे, दीवार के दरारों से तृणावली निकल पड़ी थी। चंद्रकरणें भी उन्हें पूर्ववत् उद्भासित नहीं कर सकती थी; जिन उदपानलताश्रों से विलासिनिया बड़े सदय भाव से पुष्प चयन किया करती थीं उन्हीं को बानरों ने बुरी तरह से छिन्न भिन्न कर डाला था; अट्टालिकाओं के गवाक्षे न तो रात में मांगल्य-प्रदीप से ही और न दिन में गृहलक्ष्मयों की मुखकान्ति से ही उद्भासित हो रहे थे, मानों उनकी लज्जा ढकने के लिये ही मकड़ियों ने उन पर जाला तान दिया था, नदियों के