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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्म-कथा ३५५ सैव.तों पर पूजन की सामग्री नहीं पड़ती थी, स्नान की चहल पहल जाती रही थी और उपान्त देश के वेतसलता-कुञ्ज सूने पड़ गये थे' ! इस प्रकार के महानाश का खेल खेलने वाले म्लेच्छों में भी मनुष्य के हृदय है ! भट्टिनी यह क्या कह रही हैं । यह क्या संभव है कि मनुष्य इतना निदय हो, इतना वीभक्त हो, इतना दूर हो ! पर भट्टिनी कह रही हैं कि उनमें भी एक ही रागात्मक हृदय है !! मैं इसी प्रकार चिन्ता जाल में उलझा हुआ बैठा था कि निपुणिका ने पुकारा । उस समय अाकाश नील मेघों से मैदुर हो गया था, वृक्षों की काली रेखायों के ऊपर मेधों की छाया पड़ने के कारण दूर की वनभूमि और भी काली हो आई थी, ऐसा जान पड़ता था कि आकाश सूर्य विंब को एकदम पी हो गया है। यद्यपि उस समय भी दिन अभी कुछ शेष था तथापि प्रकाश का लोप हो चुका था । इस कालिमा की पृष्ठ भूमि में निपुणिका निकघग्रावा पर अंकित सुवर्ण रेखा के समान कमनीय लग रही थी। उसके पाएर कपोल इन दिनों आनंद के रसायन से अपूर्व सुन्दर हो गए हैं, उसी वाणी में और भी मिटास आ गया है, नयन कॉरकों में शौर भी मेदुरता निखर आईं है । निपुणिका को देख कर मुझे बड़े प्रसन्नता हुई । उसके अधरों पर स्मित रेखा थी, लोचनों में लीलाविलास था और वाणी में उन्मद भाव था। मैंने प्रसन्न होकर कहा- 'क्या की है निउनिया ! निपुणिका मेरी श्रीर देखे बिना ही बोली-भट्टिनी ने जो कहाँ है उसका अर्थ तुमने समझा है ? मैंने कहा--भट्टनी ने बहुत-सी बातें कही हैं, कुछ का अर्थ मैंने समझा है, कुछ का अर्थ नहीं समझा है कुछ का समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ ।' निपुणिका ने फिर हँसते हुए कहा--- ‘नहीं नहीं, मैं सब का अर्थ नहीं पूछ रही हूँ । महाराजधिराज के योग्य 'तुल०-रघुवंश १६-११-२१