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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३५६ ब्राण भट्ट की अाम-कथा कुछ करने का उन्होंने जो आदेश दिया है उसका अर्थ पूछती हूँ । मुझे नाना चिन्तायों में वह बात भूल ही गई थी। मैंने उस विषय में कुछ सोचा भी नहीं था । निपुणिका के प्रश्न का क्या उत्तर दें। कुछ समझ नहीं सका। मुझे चिन्तित देख कर नि पुणि का फिर बोली-- घबराने की बात नहीं, मैं बताए देती हूँ। तुम्हें फिर से अभिनय का अभ्यास करना पड़ेगा और मुझे भी । मेरे मुँह से भट्टिनी ने तुम्हारे अभिनय कौशल की अनेक बातें सुनी हैं। उनकी प्रच्छन्न श्रभिलाषा है कि तुम्हारा मनोहर अभिनय देखें । तुम्हारा यह कवि मित्र कहता था कि महाराजाधिराज ने कोई नई नाटिका लिखी हैं । उसी को उस दिन क्यों नहीं रंगभूमि पर उतार देते १? निपुणिका ने मुझे एकदम नई उलझन में डाल दिया। मैंने तो यह अभिनय का व्यापार बहुत दिनों से छोड़ दिया है । भट्टिनी के सामने अभिनय करना तो एकदम असम्भव-सा ही लग रहा हैं। पर उनकी अभिलाषा है तो असाध्य में भी कूदना ही पड़ेगा। मैने अधिक जानने के उद्देश्य से पूछा---'तुझे रंगभूमि पर अब भी उतरने का साहस है निउनिया ! निपुणिका ने अखें नीची कर लीं । उसको हंसी क्षण भर में लुप्त हो गई, एक दीर्घ निःश्वास ने उसके पाएर मुख मण्डल को धूमिल बना डाला, बोली--- ‘अभिनय ही तो कर रही हूँ । जो वास्तव है उसको दबाना और ओ अवास्तव है उसका आचरण करना--यही तो अभिनय है । सारे जीवन यही अभिनय किया है । एक दिन रंगमंच पर उतर जाने से क्या बन या बिगड़ जायगा ।' निपुणिका की बातों ने मेरा हृदय कुरेद डाला । सचमुच ही क्या यह जीवन अभिनय है । यह पग-पग का बंधन, श्वास-श्वास का दमन अभिनय ही तो है ! नियुणिका इसके लिये दुखी है, परन्तु यह छूटेगा कैसे ? एक क्षण में मेरा मने जीवन की इस बैधन जड़िमा की ओर चला गया। परन्तु दूसरे ही क्षण मुझे इसकी उत्तम कोटि भी समझ में आ गई। यह बंधन ही चारुता है,