पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३६९

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उन्नीसवाँ उच्छ्वास महाराजाधिराज श्री हर्षवर्धन और महारानी राज्य श्री से मिल कर भट्टिनी बहुत प्रसन्न हुई। महाराज के सौजन्य और स्नेह ने उनका हृदय जीत लिया । वे सचमुच ही उनकी सगी बहन बन गई । महा- रानी राज्य श्री की आज्ञा से मैं वृद्ध बाभ्रव्य को भट्टिनी के पास ले आया। उन्होंने उससे मिलने की इच्छा प्रकट की थी ! वृद्ध को अभी तक यह मालूम नहीं था कि जिस देवपुत्र-नंदिनी के स्वागत के लिये सारा साम्राज्य उझल पड़ा है वह किसी समय उसी के शासन में आबद्ध अपहृता राज-कुमारी थीं। रास्ते में उसने कई बार पूछा कि ‘भद्र, देवपुत्र-नंदिनी मुझे क्यों बुला रही हैं ! वृद्ध की सरलता बड़ी भनोमोहक थी। मैंने भी आश्चर्य का भाव दिखाते हुए कहा-'हाँ आर्य, मुझे भी आश्चर्य हो रहा है कि देवपुत्र:नन्दिनी आप को क्यों बुला रही हैं ! अन्त में उसने स्वयं समाधान कर लिया । बोला- ‘दुर्भाग्य का परिहास है भद्र | बीस वर्ष से मौखरिः राजकुले के अन्तःपुर में कञ्चुकी का कार्य कर रहा हूँ । भाग्य ने मौखरि-वंश का अन्न अन्त तक छीन लेने का ही निश्चय किया है । अब मेरे ऊपर कौन विश्वास करेगा । मैं अन्तःपुर की रक्षा में अपनी अयोग्यता का परि- चय दे चुका हूँ। जान पड़ता है महारानी का विश्वास भी मुझ पर से उठ गया । कौन जाने इस वृद्ध वयस में पुरुष पुर जाना पड़ेगा या गिरिसकट के भी उस पार जाना होगा ! वृद्ध की अखेि सजल हो आई । मौखरि वंश के अन्न क} मोह कितना द्रावक था ! स्कंधावार के बाहरी अंलिद में वृद्ध को बैठा कर मैं भट्टिनी को संवाद भिजवाना ही चाहता था कि निपुणिका अ गई। उसने गले में अचल बाँध कर जानुपात-पूर्वक वृद्ध को प्रणाम किया. वृद्ध की