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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्मकथा ३५६. शिथिल दृष्टि ने पहले तो उसे नहीं पहचाना परन्तु जब वह प्रणाम करके उठी तो पचान लिया। क्षण भर में उसका मुग्व-मण्डल विवर्ण हो गया। उसने भीत-भीत भाव से कहा-‘निउनिया तू है ! निपुरिएका ने वृद्ध की मनोदशा देख कर उसे आश्वस्त करते हुए कहा-मैं ही हूँ आर्य, पर तुम इतने विवर्ण क्यों हो गए ? चलो, तुम्हें भट्टिनी के पास ले चलें । वृद्ध को जैसे बिर ने काट लिया हो । चकित भाव से पूछा---‘भट्टिनी ?’ निपुएिका ने कहा---'हाँ आर्य, भट्टिनी ने ही तो तुम्हें बुलवाया है। वृद्ध के शरीर से पसीना बह चला । वह कुछ समझने का प्रयत्न करने लगा पर उसकी अखों की जडिमा से स्पष्ट मालूम हो रहा था कि वह कुछ समझ नहीं रह है । उसने हैरान होकर फिर पूछा - ‘क्या कहती हैं नि उनिया, कौन भट्टिनी : निउनिया ने धीर भाव से कहा-“घबराओ मत अार्य, देव- पुत्र-नंदिनी के पास तुम्हें ले जा रही हूँ।' वृद्ध ने संदेह की दृष्टि से मुझे देखा और अनिच्छापूर्वक निपुणिका के साथ भीतर चल पड़ा ।। वृद्ध को देख कर भट्टिनी के बड़े-बड़े नयनों में असू भर अाए । उन्होंने प्रेमपूर्वक उसे प्रणाम किया । वृद्ध कुछ ऐसा अकचकाया कि वह प्राम का उत्तर भी न दे सका । अत्यन्त आश्चर्य और साध्वस से वह चिल्ला उठा--'जय हो, भाव महादेवी की जय हो !! भट्टिनी की कपोल-पालि पर दरविगलित अश्रुधारा बह चली । वृद्ध ने कुछ समझते हुए कहा -'अपराध मार्जित हो देवि, मैं अभ्यासवश कुछ अनुचित कह जाऊँ तो क्षम्य ही हैं। क्या छोटे राजकुन की भावी महादेवी को पहचानने में भूल कर रहा हूँ १ देवि, मौखरियों के कञ्चुकी की सारे जीवन की कमाई मैं नष्ट कर चुका हूँ, आज महा- देवी को देख कर मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि मैं प्रसन्न होऊ” या विषण्ण । देवि, शिथिलांग वृद्ध दया का पात्र है। मैं कुछ विशेष जानने का प्रसाद पाना चाहता हूँ ।' भट्टिनी ने कुछ उत्तर