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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्मकथा नहीं दिया । वे पथराई अखिों से देर तक वृद्ध को देखती रहीं । निपु- शिका भी नाना स्मृतियों के आकस्मिक उद्रक में हतचेष्ट हो गई थी। वृद्ध बारी-बारी से सब की अोर देखता रहा और कुछ समझने का प्रयत्न करता रहा । अन्त में मैंने ही कहा---‘अर्थ वाभ्रव्य, क्यों चकित की भाँति देख रहे हो ? तुम्हारे सामने देवपुत्र-नंदिनी ही विराज- मान हैं ! इन्हीं को मौकरियों के छोटे महाराज ने अपने अन्त:पुर में बलात् बंद कर रखा था । भावी महादेवी कह कर तुम व्यर्थ ही अन्न- भवती के पुराने घावों को ताज़ा कर रहे हो । निउनिया को साधुवाद दो, उसी के साहस के प्रभाव है कि ग्राज आर्यावर्त नाश के गब्बर में पतित होने से बचने की अाशा रखता है । इतना सुनने के बाद वृद्ध की विस्मय-विमूढ़ता कुछ कम हुई। वह अपने को सम्हालने में कृत- कार्य हुअा । उसने गद्गद् कण्ठ से आशीर्वाद देते हुए भट्टिनी के सिर पर हाथ फेरा ) बोला-- ‘प्रीत हूँ बेटी, आज मेरा परिताप धुल गया है । मौवरियों के अन्तःपुर की मान रक्षा न कर सकने का क्षोभ आज मेरे मन से दूर हो गया है । बीस वर्ष से मैंने कञ्चुक धारण किया है । इस लम्बी अवधि में केवल दो बार मुझे कर्तव्य से च्युत होने का अपराध स्वीकार करना पड़ा है पर त्रिपुरभैरवी की कुछ ऐसी विचित्र माया रही है कि दोनों ही बार मेरे अपराधों से वृहत्तर जत् को लाभ हुए हैं । बड़े अनुताप के साथ मैंने पिछले कई महीने बिताए हैं। मैं बराबर ऐसा ही समझता रहा हूँ कि मैंने अन्तिम जीवन में कलंक लगा लिया है लेकिन तुम्हारा परिचय पाकर मैं आश्वस्त हो गया हूँ । त्रिपुर सुन्दरी की माया को कौन जान सकता है ! | भट्टिनी ने वृद्ध को आसन ग्रहण करने का संकेत किया । उनका गला तब भी भरा हुआ था । वृद्ध के आसन ग्रहण करने के बाद हम सब ने अासन ग्रहण किया। उसकी अखिों में स्नेह का जल उमड़े पड़ा था। वह देर तक किसी भूली घटना को याद करता रहा।