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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्टकी आत्म-कथा था आर्य ! वृद्ध के अंग अवश हो अाए । भट्टिनी ने निपुणिका की ओर देखा । निपुणिका जल्दी-जल्दी चली गई और थोड़ा दूध लेकर लौटी । दूध पी लेने के बाद वृद्ध में कुछ चेतना अई । निपुणिका धीरे-धीरे पंखा झलने लगी । वृद्ध ने कहना शुरू किया-- | 'मैंने बीस वर्ष पहले केञ्चुक धारण किया था। आरंभ में मैं मौखरिनरेश के अन्तःपुर में कचुकी पद पर नियुक्त हुशा। उस समय यद्यपि मैं सत्तर वर्ष का वृद्ध था तो भी इन नाडियो में शक्ति थी । क्या बताऊँ बेटी, राजा के अवरोध गृह में वेत्रयष्टि धारण करने का नियम है । मैंने उन दिनों इस बेत की लाठी को आचार समझ कर ही धारण किया था । अब शरीर में प्राणशक्ति जब क्षीण हो आई है, तब यही वेत्रयष्टि टेकने की लाठी बन गई है ! अव मेरे लिये अस्खलित गति से चलना भी दूभर हो गया है। छोटे राजकुल में तः मैं केवल पाँच ही वघ से हूँ। इन बीस वर्षों में इस अवरोध गृह में न जाने कितनी बालाएँ लाई गई । मैंने सब का उसी सम्मान के साथ स्वागत किया जो मौजरिवंश की कुलवधू के योग्य हैं। यही मेरे पितृ-पितामहों की शिक्षा रही है। मैंने किसी बाला का परिचय जानने का प्रयत्न नहीं किया । भेरे लिये उनका एक ही परिचय था-वे मौखरिवंश की कुल- वधुएँ थीं। केवल जीवन में दो ऐसे अवसर आए जब मुझे अनिच्छा पूर्वक इन कुल-वधुशों के पूर्व जीवन की बातें जाननी पड़ीं । एक तो आज ही और एक आज से पन्द्रह वर्ष पूर्व ।” वृद्ध की अखिों में कुछ नई ज्योति दिखाई दी । उसने खाँसकर गला साफ़ किया और फिर कहने लगा--- "अाज से पन्द्रह वर्ष पूर्व ग्रहवर्मा के अन्तःपुर में एक ऐसी घटना घटी जो साधारणतः राजकीय अवरोध गृहों में अपरिचित है। मौखरि नरेश ने कुलूतराज की कन्या से विवाह किया था। यह विवाह मेरी