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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा नियुक्ति के पहले ही हो चुका था । कभी-कभी मुखरा दासियाँ मुझे बता जाती थीं कि राजा और रानी में बनती नहीं । परन्तु मैंने रानी में कोई कठोरता या दुःख का भाव नहीं देखा । वे दिन रात पूजा पाठ में लगी रहतीं । महाराजा उनके पास कदाचित् ही आते थे परन्तु जब आते तो रानी उनका पर्याप्त सम्मान करतीं, फिर भी कहीं कुछ-न-कुछ गड़बड़ ज़रूर थी क्योकि राजा एक मुहूर्त से अधिक कभी उनके पास नहीं रुकते थे। मैंने इस रहस्य को समझने का कभी प्रयत्न नहुँ अन्तःपुरिका के रहस्य के प्रति जिज्ञासा का भाव कनुकिं-धर्म के विरुद्ध है। मेरे पितृ-पितामहों ने मुझे केवल एक ही शिक्षा दी है, प्राण देकर भी कुलवधुश्रों की मान रक्षा करना । मेरे लिये सभी नमस्थ हैं, सभी समान हैं । अन्तःपुर की मर्यादा लंघन करने वाले का सिर उतार लेना में धर्म है, चाहे वह राजा ही क्यों न हों। मेरे पितृ- पितामह ने यह शिक्षा दी है कि राजा सारे संसार का राजा हो सकता है पर अन्तःपुर में वह स्वतंत्र नहीं हैं । कंचुकी राजा का नहीं, रानी का अन्न खाता है । सो, मैंने कुलूतराज-दुहिता का रहस्य जानने का कभी प्रयत्न नहीं किया। ‘एक दिन रानी ने मुझे स्वयं बुलवाया और आज्ञा दी कि महा- राज से कह दो कि महामाया ने संन्यास ग्रहण किया है। मैंने आश्चर्य, दुःख और जिज्ञासा के भाव से उनकी ओर देखा । उन्होंने गैरिक वस्त्र धारण किया था और एक सिंदूर लिप्त त्रिशूल का अवलंबे लेकर खड़ी हुई थीं । लोध्र पुष्पों के वन में खिली हुई चंद्रमलिका के समान उनका मुख चकित और व्याकुल बना रहा था। पतिशोकातुरा रति देवी के समान वे उस वैराग्य वेश में भी कमनीय दिख रही थीं। उनका वह रूप देखकर मेरी छाती फट रही थी, पर वे शान्त थीं । बड़े स्नेह और आदर के साथ उन्होंने मुझे फिर महाराजा के पास को कहा । बोलीं--‘ार्य वाभ्रव्य, मैंने संसार त्याग किया है। मेरा मन