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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा अन्तःपुर के बाहर चला गया है, शरीर भीतर रहा भी तो क्या, न रहा भी तो क्या । महाराज यदि मुझे अनुमति देंगे तो मैं अन्तःपुर छोड़ दूगी, नहीं अनुमति देंगे तो यहीं पड़ी रहूँगी, पर अब मैं गृहस्थ होकर नहीं रह सकती । पुकार आ गई है। दीर्घकाल से मैं इसकी प्रतीक्षा में थी । तुम महाराज को यह समाचार दे दो ।' 'मैंने हाथ जोड़ कर निवेदन किया कि देवि, तुम्हारा यह वेश देखकर मेरी छाती फटी जा रही है। संसार तुम्हें कहाँ बाधा दे रहा है। कि तुमने उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया है ? मैं निश्चय महाराज को श्राप का समाचार दे देंगा परन्तु वृद्ध का अपराध क्षमा करें देवि, मैं जानना चाहता हूँ कि इस कठोर निश्चय का कारण क्या है ? क्या महाराजा ने अत्रभवती की मर्यादा के विरुद्ध कुछ अनुचित आचरण किया है । | ‘रानी के शान्त मुखमएडने पर सहजै स्मित रेखा खेल गई। बोलीं-नहीं आर्य । महाराज ने कोई अनुचित आचरण नहीं किया है। उन्होंने यथामध्य मुझे सन्तुष्ट रखने का हो प्रयत्न किया है परन्तु फिर भी मुझे संसार छोड़ना ही पड़ेगा । त्रिपुर सुन्दरी की यही इच्छा है । आज रात को मैंने स्वप्न में जो पुकार सुनी है उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । ध्यान से देखो आये त्रिपुर सुन्दरी की मूर्ति हँस रद्दी है। यह बड़े अमंगल का सूचक है आर्य । मैं अगर इसी समय महा- राज से संबंध नहीं तोड़ देती तो उनका अमंगल निश्चित है । रानी की बात सुनकर मैंने बड़े ध्यान से मूर्ति को देखा पर मुझे उसमें कहीं हँसी का भाव नहीं दिखाई दिया। एक क्षण के लिये मेरे मन में ऐसा भासित हुआ कि रानी का चित्त-विक्षेप तो नहीं हो गया है ! रानी ने मेरा भाव समझ लिया। बोलीं, 'तुमने नहीं देखा आर्य १ ध्यान से देखो !! “क्या देखू ! मूर्ति जैसी नित्य दिखती थी वैसी ही थी पर रानो