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बाण भट्ट की आत्म-कथा

वाण भट्ट की ग्राम कथा विश्वस्त अनुचर को भेज सकती हो ।' “संन्यासिनी रानी के अधारों पर निर्मम हँसी दिखाई दी। बोलीं--‘देख श्राश्री महाराज, मुझे तुम पर पूरा विश्वास है । ‘परन्तु मुझे स्वयं अपने पर विश्वास नहीं है देवि। क्योकि मैं प्राण देकर भी तुम्हें अन्त:पुर में रखना चाहता हूँ । “तुम्हारे ऊपर मुझे पूरी आस्था है महाराज । नहीं, तुम अपना एक अनुचर मेरे साथ अवश्य दो ।' "तो यह वृद्ध वाभ्रव्ये अापके साथ जायगा ।' महारानी की आज्ञा से मैं महाराज के साथ धूम्रगिरि को रवाना हुअा। रथ की सहायता बहुत थोड़ी दूर तक ही मिली विंध्यमेखला में धंसने के लिये पैदल चलने के सिवा कोई उपाय नहीं था। | एक विशाल गिरिखण्ड नीचे से ऊपर तक तृण गुल्महीन कपिश पत्थरों से बना हुआ था, केवल सत्र से ऊपरी भाग में काली वनराजि दिखाई दे रही थी। ऐसा जान पड़ता था जैसे किसी विशाल अग्नि- पिण्ड के सिर पर थोड़ा-सा काला धुआँ छाया हुआ हो । संभवतः धूम्रगिरि नाम पड़ने का यही कारण था। पर्वत पर चढ़ने का सिर्फ एक ही मार्ग था जो काट कर परिश्रम पूर्वक तैयार किया गया था । मार्ग में योगिनियों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण थीं और विचित्र तांत्रिक यंत्र भी खोदे गए थे । पर्वत के ऊपर स्वच्छ जल का कुण्ड था जिस पर बड़े-बड़े पत्थरों से पाट कर एक पुल जैसा बना लिया गया था। कुण्ड के इस प्रकार कुछ गुफाएँ थीं और उस पार धूम्र श्वरी का मंदिर था । मंदिर तो वह नाममात्र का ही था वस्तुतः एक गुहा के भीतर एक अन्तर्गहा थी जिसमें दश भुजा मूर्ति स्थापित की गई थी। इसीको मंदिर नाम दे दिया गया था । बड़ी कठिनाई से हम लोग उस मंदिर तक पहुँच सके। मंदिर के द्वार पर एक योगी के दर्शन हुए' । योगी पीले वस्त्रों की बनी हुई कंथा धारण किए हुए था और हाथ में एक