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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३६८ बाण भट्ट की आत्मकथा टेढ़ी लकड़ी लिए हुए था । उसके कंठ, बाहुमूल और कानों में बड़े- बड़े रुद्राक्ष झूल रहे थे, विकट जटा-मण्डल को घेर कर एक वराटक- माला लटक रही थी और सामने एक लोहे का कपाल पात्र रखा था। उसने हम दोनों के देखते ही विकट हास्य किया । राजा को लक्ष्य कर के उसने अपनी लकड़ी चलाई परन्तु मैं जल्दी से बीच में आ गया और वह लकड़ी राजा को न लग कर मुझे लगी। योगी ने और भी विकट अट्टहास्य किया । राजा को संबोधन कर के बोला- ‘ग्रहवर्मा, तू भाग्यहीन है । धूम्र श्वरी का दर्शन कर ले, तेरे सिर पर अमंगल मंडरा रहा है । | ‘राजा का मुखमण्डल विवर्ण हो गया । यद्यपि वे वीर थे और उनके नाम से समूचा उत्तरापथ कांपा करता था तथापि योगी के इस कथन से वे डर गए। योगी ने मेरी ओर देख कर कहा--'तू भाग्य- वान् है । जिस दिन तुझे मालूम हो जायगा कि जिसे तू धर्म समझ रहा है वह अधर्म है और जिसे अधर्म समझ रहा है वह धर्म है उस दिन तू त्रिपुर सुन्दरी का साक्षात्कार पा सकेगा। जी दर्शन कर ले । ‘महाराज ने हाथ जोड़ कर पूछा--‘योगिराज, मुझे त्रिपुर सुन्दरी का साक्षात्कार कब मिलेगा ! । “तू भएड है। यह कञ्चुकी मूर्ख है। यह धर्म और अधर्म की बंधी लकीरों पर चल रहा है। इसे किसी दिन सत्य का साक्षात्कार हो सकता है पर तू अपने को बुद्धिमान समझता है। तू धर्म का दिखावा करता है । ढोंगी कहीं का, लबार । जा दर्शन कर ले । ‘महाराज कुछ ऐसे अभिभूत हुए कि योगी के पैरों पर गिर पड़े। बोले---‘योगिराज, मेरी भण्डता कैसे कम होगी १२ ‘योगी का मुखमण्डल विकसित हो उठा। बोला-“देखो महा- राज, तुमने अपने को बराबर धोखा दिया है। रानी को तुमने कभी छोड़ना नहीं चाहा पर तुमने कभी उसे अपनाने का भी प्रयत्न नहीं