पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२६
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा तुच्छ, कितना नगण्य और कितना अकिंचन है । मेरे पुरुषत्व का गर्व, कौलीन्य का गर्व और पांडित्य का गर्व क्षण-भर में भरभरा के गिर गए । नियुणिका को पहचानने में मैंने कितनी भूल की थी ! वह भक्ति- गद्गद् स्वर में स्तोत्र पाठ कर रही थी, और मैं निर्निमेष नयनों से उसे देख रहा था उस समय उसकी अंगप्रभा अलौकिक दिख रही थी; कोटरगत अाँखें मानो उद्वेल वारिधारा से परिपूर्ण होकर प्रफुल्ल पुण्ड- रोक के समान विकसित हो गई थीं; कुन्तल-जाल रह-रह कर इस प्रकार विलुलित हो उठते थे, मानो महावराह के चरण-प्रान्त में गिर पड़ने को व्याकुल हो उठे हों । मैं क्षी-भर के लिए भूल गया कि नियुणिका हमारी नाक-मण्डली की परिचित निउनिया है। ऐसा लगता था कि वह कोई देवांगना है और कब इस कलुष धरित्री को छोड़ ऊपर उड़ जायगी, यह कहा नहीं जा सकता। मैंने इस रमणी के हृदयान्तःस्थित परम प्रेम-मूत्ति महविरह को मन-ही-मन प्रणाम किया । प्रथम दर्शन में जिसे मैंने कलाई की हँसी समझ कर अपनी सहृदयता पर गर्व किया था, वह एक भद्दी भूल थी। मैंने मन-ही-मने अपनी अकिंचनता को धिक्कार । इसी समय निपुणिका उठी; और उसके साथ ही शान्ति की एक भारी श्री भी उठ खड़ी हुई । उसके गमन में एक प्रकार की भाव-विह्वल मंथरता अब भी वर्तमान थी । मानो भावमत्ता भक्ति ही देह धारण किए चली आ रही हो । उसके चेहरे पर अब फिर मुसुकान थी । इस बार मैंने समझा कि मैंने प्रथम दर्शन में इस रमणी को कितना गलत समझा था । करुणा दीप्त मुखमण्डल को अनुशोचना मानना मेरा प्रमाद था । निपुणिका आई और थोड़ी देर तक चुप बैठी रही । मेरे मुँह से भी कोई बात निकल नहीं रही थी। कुछ देर की चुप्पी के बाद उसने ही शुरू कियो–“भट्ट, तुम सचमुच मेरी सहायता कर सकते हो ?'

  • तुम्हें सन्देह क्यों हो रहा है, निपुणिका ? मैंने क्या कभी ऐसी