पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३७०
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा राज के कपाल पर हाथ फेरने लगा। महाराज को वहाँ से उठाकर हम लोग कु.एड पर ले आए। कुछ उपचार के बाद वे जब होश में आए तो योगिराज ने कहा-‘चूक गए महाराज, तुम देवी को प्रसन्न नहीं कर सके । घर लौट जाअो । मौखरिवंश का भविष्य अच्छा नहीं है। यदि किसी दिन भी तुम त्रिपुर सुदरी का रूप देख सकते ! महामाया को तुम देवी रूप में नहीं पा सके पर देवी को तुमने महामाया के रूप में देख लिया। प्रयत्न करो, भाग्य प्रसन्न होगा तो देवी को भी किसी दिन देख सकोगे परन्तु मौखर राज लक्ष्मी का अब भरोसा नहीं हैं । तुम बहुत दिन जी नहीं सकते, परन्तु तुम दूसरा विवाह अवश्य करना। देवी ने कल रात में कहा कि समूचा अर्यावर्त भस्म होने जा रहा है । महामाया है। इसका उद्धार करे ! तुम उसे को मत ।' मेरी छ।र देखकर उस योगी ने कहा-‘मोखरिवंश का अमंगल दूर करने के लिये मने जो लाटी फेंकी थी उसे तु ने अपने ऊपर ले लिया ! मूर्ख ५ञ्चुको, प्रमादवश तू ने कैसा अनर्थ कर दिया ! लेकिन तेरे प्रमाद से किरु? दिन अर्यावर्त का कल्याण हो सकता है । जो घर लौट जा । | ‘महाराज चुपचाप सुनते रहे । युवा तपस्वी एकटक महाराज की ओर देखता रहा । उसकी अाँखें गोल-गोल कौड़ी जैसी थीं और उनकी पुतलियों से ज्य; ति रेखा-सी प्रकट हो रही थी । वह न हिला, न बोला, न विचलित हुआ। महाराज जब उठे तो उस युवा तापस की अखिों में कृतज्ञता के अश्र भर आए । महाराज पर उसका प्रभाव पड़ा | पर भी मौन ही रहे । लौटते समय महाराज बराबर मौन रहे । वे न जाने क्या-क्या सोचते रहे। नगर में प्रवेश करते ही उन्होंने मुझसे पूछा-‘नाभ्रव्य, क्या देखा तुमने ! मैंने संभ्रम के साथ उत्तर दिया-'देव, महादेवी ही धूम्र श्वरी हैं।