पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३७१
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा

  • महाराज ने डाँट कर कहा-“मूर्ख !?

मैं चुप हो रहा। महाराज ने फिर पूछा-'वाभ्रव्य क्या यह वशीकरण का अभिचार नहीं था ?' । अभिचार ! हाँ, अभिचार ! मैं इन भण्ड तांत्रिक को माया में नहीं फैंस सकता। मह मिया को मैं नहीं छोड़ सकता । वह मौखरिवंश की। लक्ष्मी है ! ‘घर लौट कर महाराज ने रानी को न जाने क्या-क्या समझाया। सांध्य गोधूलि के समय महामाया रानी ने मुझे बुलाया । उनके पूछने पर मैंने सारी बातें ज्यों की त्यों सुना दई । महामाया ने चिन्तित होकर पूछा---'क्या योगिराज ने मुझे नहीं रोकने को कहा है ? मैंने कहा ‘६१ देवि, योगिराज ने महाराज से स्पष्ट कहा है कि रानी को मत रोको ।' महामाया थोड़ी देर तक चिन्तित होकर खड़ी रहीं। फिर एक- एक बोली-“वाभ्रव्य मुझे धूम्रगिरि जाने दो । महाराज मोह-ग्रस्त हैं । वे सत्य को नहीं देख रहे । तुम लोग प्रयत्न करके उनका दूसरा विवाह कर देना । मैं अगर रुकती हूँ तो आज ही मौखरि-लक्ष्मी रूठ जायगी। जल्दी करो !

  • मैंने रानी को अन्त:पुर के बाहर निकल जाने दिया ।

‘दूसरे दिन महाराज ने जब बुलवाया तो मैंने सारी बातें ज्यों की त्यों कह दी । महाराज ने सिर थाम लिया । मुझसे केवल इतना ही कहा कि जो अपना काम देखो । इतना कह लेने के बाद वृद्ध वाभ्रव्य ने दीर्घ नि:श्वास लिया । भट्टिनी की ओर देखकर बोला-बेटी, यद्यपि मैंने महाराज के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लिया तथापि मेरे भीतर से बराबर यही ध्वनि निकलती रही कि मैंने उचित ही किया है । आज मालूम हो रहा है कि मेरा दूसरा प्रमाद भी अच्छा ही हुआ था ।' इतना कह कर