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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्म-कथा वृद्ध चुप हो गया। बड़े स्नेह के साथ वह भट्टिनी के ललाट पर हाथ फेरने लगा । बड़ी देर तक वहाँ सभी निस्तब्ध बैठे रहे । अन्त म उस वृद्ध ने ही उपसंहार किया । बोला-'आर्यावर्त नाश से बच जायगा। देवपुत्र नंदिनी और महामाया भैरवी उसे बचा लेंगी। योगी की भविष्यवाणी व्यर्थ नहीं जायगी । सिद्धवाक पुरुषों की वाणी मृषा नहीं होती ।' फिर निपुणिका की ओर देखकर वह बोला --बेटी, तू धन्य है। मैंने तुझे अनेक अभिशाप दिए हैं। आज मैं अपने सभी अभिशात्रों को वरदान समझ रहा हूँ। मैं आज स्पष्ट देख रहा हूँ कि जितने बंधे-बंधाए नियम और आचार हैं उनमें धर्म अँटता नहीं। वह नियमों से बड़ा है, आचारों से बड़ा है । मैं जिनको धर्म समझता रहा वे सब समय और सभी अवस्था में धर्म ही नहीं थे, जिन्हें अधर्म सम- झता रहा वे भी सब समय और सभी अवस्था में अधर्म ही नहीं कहे जा सकते । योगी ने मुझे बताया था कि जिस दिन तू धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म समझ लेगा उसी दिन त्रिपुर सुंदरी का साक्षात्कार पा सकेगा। आश्चर्य है ! निपुणिका ने कृतज्ञता पूर्वक वृद्ध को देखा-बोली, “एक बात पूछने की इच्छा होती है आर्य, मौखरि नरेश को योगी ने दूसरा विवाह करने को क्यों कहा था, उससे क्या अर्या राज्यश्री जैसी साध्वी का जीवन व्यर्थ नहीं हो गया । वैधव्य से बड़ी व्यर्थता स्त्री के लिये और क्या हो सकती है आर्य १? वृद्ध ने डाँटा, 'छिः निउनिया ऐसा भी कहते हैं ! राज्यश्री का जीवन व्यर्थ हुआ है । भोली लड़की, सार्थकता क्या है ? योगी ने ठीक ही कहा था, अपने को नि:शेष भाव से दे देने को ही वशीकरण कहते हैं । अन्तिम जीवन में मौखरि नरेश को यह सिद्धि मिल गई है। देख बिटिया मनुष्य जितना देता है उतना ही पाता है। प्राण देने से प्राएं मिलता है, मन देने से मन मिलता है। आत्मदान ऐसी वस्तु है जो दाता और ग्रहीता दोनों को सार्थक करता है । राज्य