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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की श्रीम-कथा श्री ने वह दान दिया भी था और पाया भी था | लौकिक मानदण्ड से अानन्द नामक वस्तु को नहीं मापा जा सकता। दुःख तो केवल मन का विकल्प ही है, मनुष्य तो नीचे से ऊपर तक केवल परमानंद स्वरूप है । अपने को निशेष भाव से दे देने से ही दुःख जाता रहता है, परमानंद प्राप्त होता है। मुझे उस योगी की बात बड़ी भावपूर्ण लगी थी। मैं एक बार और उसके पास गया था, परन्तु उस भलेमानस ने मुझे डाँटकर भगा दिया था। केवल एक बार उसने कहा था, 'मूर्ख, तु यदि दुःख को सुख मान सकता ! कहाँ भनि सका हूँ बिटिया ! । थोड़ी देर तक फिर सन्नाटा रहा। मैंने पूछा–आर्य, युवा तापस का नाम क्या अधोर भैरव था ? वृद्ध ने आश्चर्य युक्त आनंद के साथ कहा-‘हाँ भद्र ! विकट नाम हैं । निपुगिका ने भट्टिनी की ओर देखा । भट्टिनी के हरिणी के समान नेत्र फैल कर कान तक पहुँच गए । बोलीं---‘आश्चर्य है, अद्भुत है ! और मेरी ओर देर तक अाविष्ट भाव से देखती रहीं । निपुणिका स्खोई-सी खड़ी रही । थोड़ी देर तक उसमें स्पन्दन का लेश भी अनुभूत नहीं हुआ। फिर जैसे स्वप्नोत्थिता की भाँति बोल उठी-अपने को नि:शेष भाव से दे देना ही वशीकरण है !