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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म कथा ३७५ परेशान थे । वे जानते थे कि भर्वशर्मा को अप्रसन्न करने में इस समय कितने ५३ अनर्थ की संभावना है । वे बार बार महाराजाधिरन से मिलते थे, परन्तु कोई युक्ति नहीं सोच पा रहे थे एकाएक एक दिन उन्होंने मुझे और मेरे अग्रज उडुपति भट्ट को बुलवा में जा । हम लोग जब उनके घर पहुँचे तो उन्होंने बड़े मम्मान से नारा स्वागत किया। उडुपति भट्ट को संबोधन करके बोले --आर्य, महाराजाधिराज ने निश्चय किया है कि बौद्ध पंडित बनुभूति के साथ ब्राह्मणों द्वारा व्रत किम् । श्रेष्ठ पंडित से शास्त्रार्थ कराया जाय । यहाँ के कान्यकुब्ज पंडित आपको इस वाद सभा के प्रतिपक्षी के रूप भ वर; करना चाहते हैं। श्राप क्या वसुभूति को शास्त्रार्थ विचार म पराजिम कर सकते हैं ? आप की विजय पर यहाँ के ब्राह्मणों की मान-प्रतिष्ठा सव निर्भर है। और मारे आर्यावर्त का भविष्य भी निर्भर है । इपति भट्ट ने बिना किसी झिझक या संकोच के उत्तर दिया कि वे राज़ हैं ! कुमार उन्हें लेकर महाराजाधिराज के पास चले गए। मैं भट्टिना के पास लौट आया । वहाँ उपति भट्ट और वसुभूति का शास्त्र-विचार देर तक चला । दूसरे दिन नगर में डी पिटवा दी गई कि शास्त्रार्थ विचार में उडुपति भट्ट विजयी हुए हैं और महाराजाधिराज का ब्राह्मण धर्म में फिर से अास्था हो गई है । अब से ब्राह्मण पंडितों का 21क उसी प्रकार राजसभा में सम्मान होगा जिस प्रकार महाराज गह्वभ के समय में था। महाराजाधिराज ने लगभग सौ स! माध्यायि । को नवोन रूप में भूमिदान किया है । यद्यपि चतुर्वेद, त्रिवेद और द्विवेद कह कर ब्राह्मणों की भिन भिन्न स्तर-सीमा निर्धारित कर दी गई है तथापि व्यबहार में सत्र के साथ समान व्यवहार किया जाये । भवंशम के वधर अभी बालक हैं । उन्होंने अभी तक दो वेदों का ही अभ्यास किया है फिर भी इन द्विवेदों का सम्मान उसी प्रकार किया जायेगा जिस प्रकार चतुर्वेद और त्रिवेद ब्राह्मणों का । बौद्ध मठों को जो दान दिया गया था