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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा जितमुपतिना नमः सुरेभ्यो द्विजवृषभा निरुपद्धा भवन्तु । भवतु च पृथिवी समृद्धशस्या प्रतपतु चन्द्रवपुर्नरेन्दचन्द्रः ।। तो आचार्य देव ने साधु साधु कह कर वर्धापनिका (बधाई दी । आचार्य देव के साधुवाद से सामाजिक लोग बहुत प्रीत हुए । परन्तु नाटिका के लिये पात्र बड़ी कठिनाई से मिले । चारुस्मिता मेरे अनुरोध पर रत्नावली की भूमिका में उतरने को राज़ी हो गई । वह वणिका-भंग में अद्भुत कुशला थी । उसे तैयार करने में एकदम परिश्रम नहीं पड़ा । निपुणिका ने स्वयं वासवदत्ता की भूमिका में उतरने की उत्कण्टा प्रकट की। राजा मैं स्वयं बना । धावक तो बना बनाया विदूषक था। कुल और पात्र इधर उधर से जुट गए। भट्टिनी को इस अभिनय में अपूर्व उत्साह अनुभूत हो रहा था। अभिनय के दिन वे केवल घूम फिर कर इसी प्रसंग पर श्री जाती थीं। मैंने एक बार पूछा कि 'देवि, इस नाटिका में ऐसा क्या है जो तुम्हें इतना मुग्ध किए है ! तो उन्होंने केवल हँस दिया था। परन्तु निपुणिका इतना गंभीर नहीं रह सकी । उसने अत्यन्त उत्साह के साथ कहा-‘भट्ट, तुम नहीं देखते कि वासवदत्ता ने किस प्रकार दो विरोधी दिशा में जाने वाले प्रेम को एकसूत्र कर दिया है ! प्रेम एक और अविभाज्य है । उसे केवल ईध्य और असूया ही विभाजित करके छोटा कर देते हैं ! उस समय भी मैं यदि निपुर्णिका के वाक्यों की गहराई में जा सकता तो वह अनर्थ शायद रुक जाता जिसने मेरे जीवन को उजाड़ बना दिया है। परन्तु दीक समय पर मुझे ठीक कर्तव्य सूझता ही नहीं और अब तो क्या सूझेगा ! | जो होना था वह होकर ही रहा। श्रभिनय बहुत सुन्दर हुआ। वासवदत्ता की भूमिका में निपुणिका ने तो उन्माद बरसा दिया। रखावती, प्रस्तावनी