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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३७६ बारा भट्ट की अम-कथा वह भी ज्यों का त्यों रहने दिया जायगा । महाराजाधिराज ने सब को समान भाव से सम्मान करने का निश्चय किया हैं। अब तक राजा लोग अपने तेज और प्रताप का परिचय देने के लिये विक्रमादित्य का विरुद्ध व्यवहार करते थे । अाज हे महार(जाधिराज सब के क्लश-शामक होने के कारण नरेन्द्र चन्द्र' का विरुद धारण करेंगे | उनके प्रताप से शान्ति बरसेगी । इस घोषणा ने जनता में अपूर्व विजयोन्माद का संचार किया। नगर की वीथियाँ ‘नरेन्द्र चन्द्र' के जय-जय कार से मुख- रित हो उठीं । उल्लास का ऐसा बवण्डर उठा कि सारा नगर उन्मत्त की भाँति झूम उठा । इसी पृष्ठभूमि में आचार्य भर्वपाद का अाग- मन हुआ। भट्टिनी का श्रानन्द झा बांध तोड़ देना चाहता था। सहज गंभीर भट्टिनी आज नन्हीं बालिका बनी हुई थीं । महाराज और भवु शर्मा के आगमन के उपलक्ष्य में रत्नावली नाटिका के अभिनय का भार मेरे ऊपर पड़ा । महाराज ने केवल अभि- नय की अनुमति ही नहीं दी उसमें यथेच्छ परिवर्तन का अधिकार भी मुझे और धावक को दे दिया। मैंने इधर उधर थोड़े में परिवर्तन कर भः दिए | एक श्क में मैंने बड़ी चतुरता से अपना नाम भी जोड़ दिया । नाटक के प्रारंभ में ही वह श्लोक था । मैंने अपना नाम ‘दक्ष उसमें कौशल पूर्वक भिड़ दिया था । महाराज को वह श्लोक बहुत पसंद आया । उसे उन्होने अपने अन्य नाटक में भी जोड़ दिया । सत्र से महत्वपूर्ण बात उसमें महाराजाधिराज की घोषणा का जोड़ा जाना था । उसका प्रभाव जनता पर भी अच्छा पद और प्राचार्य भवपाद पर भी । अभिनय के दिन सूत्रधार ने जब गद्गद् कंठ से पढ़ा--- १ तुल० रत्नावली, प्रस्तावन-- , श्री हर्षों निपुर: कविः परिषदध्येषा' गुण अहिणी लोके हारिच वत्सराजचरितं नाट्ये च दक्षा वयम् ।