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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३७६ बाणु भट्ट की आत्मि-कथा उसके हर्ष, शोक और प्रेम के अभिनय में वास्तविकता थी। मैं हत- भाग्य बराबर उमें अभिनय ही समझता रहा पर वह अभिनय से कह। अधिक था, भिन्न था । वह वास्तव में निपुगि का ने अपने को ही खोल कर रख दिया । अन्तिम दृश्य में जब वह रत्नावली का हाथ मेरे हाथ में देने लगी तो सचमुच विचलित हो गई। वह सिर से पैर तक सिहर गई। उसके शरीर की एक-एक शिरा शिथिल हो गई । भरत- वाक्य समाप्त होते-होते वह धरती पर लेट गई। नागर जन जब साधु- साधु के अानंदध्वनि से दिन्तर कॅपा रहे थे उस समय अमनिका { पर्दै ) के अन्तराल में निपुण का के प्राण निकल रहे थे । भट्टिन ने दौड़ कर उसका सिर अपनी गोद में ले लिया और कुररी की भाँति कातर चीत्कार के साथ चिल्ला उठीं, 'हार्य भट्ट, अभागिनी का अभिनय आज समाप्त हो गया। उसने प्रेम की दो दिशात्रों को एकसूत्र कर दिया ! और पछाड़ खा कर निपुणिका के मृत शरीर पर लोट पड़ीं । अभिनय कर के जिसे पाया था अभिनय कर के ही उसे मैंने वो दिया ! | धावक उस बात को एक क्षण में समझ गया था जिसे मैं जीवन भर नहीं समझ सका । उसने यमनिझा-पातन की क्रिया में बड़ी फुर्ती का परिचय दिया। महाराजाधिरा है और प्राचार्य भर्वपाद को इस दुर्घटना का उस दिन एकदम पता न चला । पौरजनों के आनन्दो- ल्लास में रचमात्र भी व्यत्यय नहीं होने पाया। धावक ने भट्टिनी को वहाँ से बड़े कौशल से हटाया और बड़ी फुतf से निपुणका के शव को श्मशान तक पहुंचा दिया । मुखाग्नि की क्रिया मैंने ही की । धावक भी अन्त तक स्थिर नहीं रह सका । अभिभूत होकर उसने भी चिता को साष्टांग प्रणाम किया । जिस मुख-मण्डल से केवल मस्ती और आनन्द ही उच्छवसित होते रहते थे उस पर प्रथम बार विषाद का धूम छा गया। जिस जिहा से श्रावण' के मेघ के समान निरन्तर