पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३७९
बाण भट्ट की आत्म-कथा

माणु भट्ट की आत्मकथा ३७६ वाग्धार झड़ती रहती थी उसे जैसे काठ मार गया। धावक की दशा विचित्र हो रही थी। हम लोग जब चलने को हुए तो क्या देखते हैं। कि चारुस्मिता एक स्वेत साड़ी पहने हाथ में पुष्पस्तवक लिए उप- स्थित है ! उस सादे वेश में उसका सौन्दर्य और भी निखर गया था। मेघमाला जल से भरी हुई भी मनोहर लगती हैं और जल से रिक्त थी । चारुस्मिता की अवों में श्रद्धा चमक रही थी। उसने जानुपात- पूर्वक चिता को प्रणाम क्रिया अौर मूद्ध-निषक्त अञ्जल पुट से सुकु- मार भाव में पुष्पस्तवक अदृश्य स्वर्ग गामिनी को नई कर के चढ़ा दिए । धावक की आँखों के रुद्र अश्रु ग्रब बह चले । मेरी अवस्था क्या थी यह में कैसे बताऊँ । मुझे दिशाएँ शून्य मालूम हो रही थीं, व्योम-मण्डल कुला-चक्र की भाँति घूमना जान पड़ रहा था । चारु- स्मिता ने मुझे आश्वस्त करने के लिये कहा --‘चलो आर्य, इस नश्वर जगत् में या एक शाश्वत सत्य है । निपुगिएका स्त्री जाति का 'गार थी, सतत्व की मर्यादा थी, हमारी जैसी उन्मार्गामिनी नारियों की मार्गदर्शिका थी ।' चारुस्मिता की अाँखों में एक करु -कोमल भान दिग्बाई दिया । धावक ने दीर्घ मौन भंग कर के कहाँ----‘हाँ भद्र, चलो ।' मैं धीरे-धीरे धावक और चारुस्मिता के पीछे-पीछे चला। रास्ते में केवल एक बार चारुस्मिता ने दीधे नि:श्वास लेकर कहा -- ‘दुनिया केवल प्रस्तर-प्रतिमाशों पर जान देती हैं ! केवल उसके अन्तयम ही जानते हैं कि उसका आशय क्या था । भट्टिनी के स्कन्धावार में उस समय शान्ति थी । मैं मन ही मन डर रहा था कि शोकस भट्टिनी को एकाकी छोड़ने से कहीं कोई और अनर्थ न हो जाय, परन्तु उस शान्ति से मेरा चित्त कुछ आश्वस्त हुश्रा । भीतर जाकर देखता हूँ तो भट्टिनी का सिर गोद में लेकर सुच- रिता बैठी है। इधर सुचरिता नित्य ही पहर रात बीतने पर आया करती थी । सायं काल की पूजा तथा पति और गुरु की परिच यथा-